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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
साधारण जीव जब किसी वस्तु को देखता है तो अपने राग या द्वेष की भावना का रंग उस पर चढ़ा देता है और इस कारण उसे वस्तु का शुद्ध ज्ञान नहीं होता। इसी प्रकार जिस ज्ञान पर राग-द्वेष का रंग चढ़ा रहता है, जो ज्ञान कषाय की मलिनता कारण मलिन बन जाता है, उसे समीचीन ज्ञान नहीं कहा जा सकता ।
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• सम्यग्ज्ञान जिन्हें प्राप्त है, उनका दृष्टिकोण सामान्य जनों के दृष्टिकोण से कुछ विलक्षण होता है । साधारण जन जहाँ बाह्य दृष्टिकोण रखते हैं, ज्ञानियों की दृष्टि आंतरिक होती है। हानि-लाभ को आंकने और मापने के मापदंड भी उनके अलग होते हैं । साधारण लोग वस्तु का मूल्य स्वार्थ की कसौटी पर परखते हैं, ज्ञानी उसे अन्तरंग दृष्टि से अलिप्त भाव से देखते हैं, इसी कारण वे अपने आपको कर्म-बंध के स्थान पर भी कर्म - निर्जरा का अधिकारी बना लेते हैं। अज्ञानी के लिए जो आस्रव का निमित्त है, ज्ञानी के लिए वही निर्जरा का निमित्त बन जाता है आचारांग में कहा है
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'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा ।'
• संसारी प्राणी जहाँ हानि देखता है ज्ञानी वहाँ लाभ अनुभव करता है। इस प्रकार ज्ञान दृष्टि वाले और बाह्य दृष्टि वाले में बहुत अन्तर है। बाह्य दृष्टि वाला भौतिक वस्तुओं में आसक्ति धारण करके मलिनता प्राप्त करता है, जबकि ज्ञानी निखालिस भाव से वस्तुस्वरूप को जानता है, अतएव मलिनता उसे स्पर्श नहीं कर पाती । बहुत बार ज्ञानी और अज्ञानी की बाह्य चेष्टा एक-सी प्रतीत होती है, मगर उनके आंतरिक परिणामों में आकाश-पाताल जितना अंतर होता है। ज्ञानी जिस लोकोत्तर कला का अधिकारी है, वह अज्ञानी के भाग्य में कहाँ ?
• ज्ञान के जलाशय में डुबकी लगाई जाये तो हमारा ताप मन्द पड़ेगा । क्रोध, मान, माया, लोभ की ज्वालाएँ उठ रही हैं, दिल-दिमाग को परेशान कर रही हैं उन्हें हम शान्त कर सकते हैं, यदि ज्ञान के जलाशय में गोता लगाया जाये। दूसरा लाभ इससे यह है कि हमारे मन का मैल दूर होगा, अज्ञान दूर होगा, ज्ञान की कुछ उपलब्धि होगी, जानकारी होगी। तीसरा लाभ है वीतराग वाणी ज्ञान का अंग है तो प्राणी का जो तृष्णा का तूफान है, वह तूफान भी जरा हलका होगा जिससे मन में जो अशान्ति है, बेचैनी है, आकुलता है वह दूर होगी। इसलिये हमारा प्राथमिक और जरूरी कर्तव्य है हम प्रातःकाल शारीरिक कर्मों से निवृत्त होकर जो लोकोत्तर कर्म है- वीतराग की भक्ति का, धर्म-चिन्तन का, गुरु सेवा का, उसकी भी आराधना करने में तत्पर रहें।
विद्या का सार है वास्तव में सही निश्चय का हो जाना। दुनिया भर के पोथे पढ़ लेना, यह विद्या का सार नहीं है । अच्छा बोल लेना, अच्छा लिख लेना, यह विद्या का सार नहीं है। बोलना, लिखना, पढ़ना, समझना और समझाना यह तो एक प्रकार की कला है, अक्षर ज्ञान है। लेकिन वास्तविक ज्ञान वास्तविक विद्या और ही चीज है। वास्तविक विद्या तो वही है, जिसके द्वारा मानव अपने स्वरूप को समझता है, आत्मोन्मुख होता है और उसको निश्चय हो जाता है कि संसार में सार क्या है।
• जिसका ज्ञान ही ढक गया, जिसके ज्ञान पर पर्दा आ गया, जिसकी समझ समाप्त हो गई तो वह आदमी अपने किसी काम को सुन्दर ढंग से नहीं कर सकता है ।
• अक्षर-ज्ञान में पण्डित बन जाने पर भी और पी. एच. डी. की डिग्री हासिल कर लेने पर भी कोई ज्ञान पा गया है, यह नियम नहीं है। यदि वह अपनी आत्मा की शुद्धि करेगा, विषय-कषायों को हटाएगा, वीतराग वाणी का चिन्तन करेगा तो ज्ञान पाएगा।