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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३८१ व्यावहारिक शिक्षण प्राप्त करने वाले व्यक्ति कभी-कभी अपने सहयोगियों की सत्ता को हिला देते और उखाड़ फेंकते हैं। उनमें व्यावहारिक ज्ञान के साथ-साथ महत्त्वाकांक्षा भी जागृत हो जाती है। वे किसी के अनुशासन में, किसी की अधीनता में, किसी के हाथ के नीचे रहना बहुत कम पसन्द करते हैं। इसलिए यदि कोई बात उनके मन में अनुकूल नहीं हो तो चाहे उनकी सहायता करने वाला हो, चाहे प्रिन्सिपल हो, शिक्षा मंत्री, वाइस-चान्सलर हो अथवा कोई भी उनका बड़ा उपकारी सहायक हो, जिसने उन्हें शिक्षण में पूरा सहयोग दिया हो, छात्रवृत्ति दी हो, उन सबको वे उखाड़ कर अलग कर देते हैं। इस प्रकार व्यावहारिक ज्ञान में दी हुई सहायता कभी-कभी सहायक के लिए अहितकर भी हो सकती है। परन्तु सम्यग्ज्ञान में कभी स्वयं के लिए अथवा दसरे के लिए अहितकर मार्ग में बढ़ने जैसी स्थिति नहीं होती। इसीलिए उसे सम्यग्ज्ञान कहा है। यदि वीतराग की वाणी को सुनकर उसे कोई ग्रहण न करे तो उसकी आत्मा में बल नहीं आएगा, उसमें बुराइयों से जूझने की शक्ति नहीं होगी। ऐसी स्थिति में समझ लेना चाहिए कि श्रोता में कुछ मानसिक रोग अवशिष्ट हैं। सुनी हुई बात का मनन करने से आत्मिक बल बढ़ता है। मनन के बिना सुना हुआ ज्ञान स्थिर नहीं होता। . जैसे अज्ञानावस्था में शिशु मल के मर्म को समझे बिना उसमें रमते हुए भी ग्लानि और दुःख का अनुभव नहीं करता और वही फिर होश होने पर मल से दूर भागता और नाक-भौं सिकोड़ता है, वैसे ही सद्ज्ञान प्राप्त नहीं होने तक आत्मा अबोध बालक की तरह कर्म-मल लिप्त बना रहता है, किन्तु ज्योंही सद्गुरु की कृपा से सद्ज्ञान की प्राप्ति हो गयी, फिर क्षण भर भी वह कर्म-मल को अपने पास नहीं रहने देता। संसार के सभी पदार्थ मनुष्य के लिए अनुकूल या प्रतिकूल निमित्त बनकर कार्य करते हैं। जो मनुष्य अज्ञान में सोये हों उनके लिए ये वस्तुएँ, अधःपतन का कारण बन जाती हैं। पर जिनके हृदय में ज्ञान-दीप का प्रकाश फैला हुआ है, उन्हें ये पदार्थ प्रभावित नहीं कर सकते। जागृत मनुष्य पतन के कारणों को प्रभावहीन कर देते हैं। द्रव्य, क्षेत्र और काल की तरह भाव भी मानव के भावों को जागृत करने में कारण बनते हैं, किन्तु 'पर' सम्बन्धी भाव में जैसा अपना अनुकूल प्रतिकूल भाव मिलेगा, उसी के अनुसार परिणति होगी। ज्ञानवृद्धि के लिए प्रवचन सुनने वाले श्रोताओं को लिखने की आदत रखनी चाहिए। इससे मनन का अवसर मिलेगा और कई बातें आसानी से याद रखी जा सकेंगी। आपको अनेक सत्पुरुषों के उपदेश श्रवण का अवसर मिलता है और उसमें कई बातें तो इतनी असरकारक होती हैं कि जिनके स्मरण से जीवन की दिशा बदली जा सकती है और आत्मा को ऊँचा उठाया जा सकता है, किन्तु लिपिबद्ध नहीं होने से वह थोड़े समय में ही मस्तिष्क से निकल जाता है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। आत्मा कितनी ही मलिन और निकृष्ट दशा को क्यों न प्राप्त हो जाए, उसका स्वभाव मूलतः कभी नष्ट नहीं होता। ज्ञानालोक की कतिपय किरणें, चाहे वे धूमिल ही हों, मगर सदैव आत्मा में विद्यमान रहती हैं। निगोद जैसी निकृष्ट स्थिति में भी जीव में चेतना का अंश जागृत रहता है। इस दृष्टि से प्रत्येक आत्मा ज्ञानवान ही कही जा सकती है, मगर जैसे अत्यल्प धनवान को धनी नहीं कहा जाता, विपुल धन का स्वामी ही धनी कहलाता है, इसी प्रकार प्रत्येक जीव को ज्ञानी नहीं कह सकते। जिस आत्मा में ज्ञान की विशिष्ट मात्रा जागृत एवं स्फूर्त रहती है, वही वास्तव में ज्ञानी कहलाता है। ज्ञान की विशिष्ट मात्रा का अर्थ है-विवेकयुक्त ज्ञान होना, स्व-पर का भेद समझने की योग्यता होना और निर्मल ज्ञान होना। जिस ज्ञान में कषायजनित मलिनता न हो वही वास्तव में विशिष्ट ज्ञान या विज्ञान कहलाता है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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