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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं • कुछ लोग यह आशा करते हैं कि हमको देवता बचा लेंगे, भैरोजी बचा लेंगे, चण्डी या अम्बाजी बचा लेंगी।
जाप करके आशा की जाती है कि देव शक्ति-बचा लेगी। बात यह है कि समय आने पर देवों को और इन्द्र को भी अपना सिंहासन छोड़कर जाना पड़ता है, तो क्या वे आप का सिंहासन बराबर बरकरार रख सकेंगे?
जीवन-निर्माण • भव-मार्ग के लिए , संसार के जीवों को जन्म-मरण के चक्र में गोता लगाने के लिए, छोटे-बड़े किसी भी प्राणी
को शिक्षा देने की, समझाने की, और जीवन को आगे बढ़ाने हेतु प्रेरणा देने की आवश्यकता नहीं है। एक छोटा सा कीड़ा जो गटर में पैदा होता है, खाने-पीने की व्यवस्था वह भी कर लेता है। छोटी सी दरार में पैदा होने वाली चींटी कहाँ से लाना, कैसे लाना, पदार्थ कहाँ है, मेरे अनुकूल क्या है, प्रतिकूल क्या है, अच्छी तरह जानती है, इन सारी बातों की जानकारी उसको भी है। पक्षी में कहिए, पशु में कहिए, देव में कहिए, दानव में कहिए, आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन संज्ञा, परिग्रह संज्ञा - ये चारों प्रकार की संज्ञाएँ सब में हैं। अपने जीवन को चलाना, बाधक तत्त्वों से अलग रहना, साधक तत्त्वों की ओर जुट जाना - इसके लिये किसी को प्रेरणा देने की जरूरत नहीं है। एकेन्द्रिय कहलाने वाला पेड़ भी पत्थर की चट्टान की ओर जड़ फैलाने के बजाय उधर जड़ फैलायेगा जिधर जमीन में कोमलता है, स्निग्धता है , आर्द्रता है, गीलापन है। इसलिए एकेन्द्रिय जीव को अपनी जड़ किधर फैलानी चाहिए, कैसे फैलानी चाहिए वह स्वयं जानता है कोई शिक्षा देने नहीं आता। इस प्रकार जीवन चलाने के लिए आहार कहाँ से प्राप्त होगा, जल कहाँ से प्राप्त होगा, हमको कैसे जीवन चलाना चाहिये, ये बातें एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक सारे जीव जानते हैं। जैसे आप विविध कलाएँ करते हैं, उसी तरह जानवर भी करते हैं। वे भी अपना जीवन चलाने में दक्ष होते हैं, निपुण होते हैं। सामने वाले को तेजस्वी देखकर दुम दबाकर भाग जाते हैं और यदि सामने वाला कमजोर है तो एक कुत्ता भी बच्चे को देखकर, गुर्राकर, उसके सामने मुँह कर दो कदम आगे बढ़कर उसके हाथ से रोटी छीन सकता है। यदि लाठी वाला बड़ा आदमी सामने खड़ा है, उसके हाथ में लाठी है तो कुत्ता भी जानता है कि उसके हाथ से रोटी कैसे लेना । वह नीचे लेटेगा, पेट दिखायेगा, जीभ लपलपायेगा और रोटी ले लेगा। आप भी यही करते हैं । इन्सपेक्टर को देखकर हाथ जोड़ते हैं और भोले भाले आदमी को देखकर आप भी गुर्राते हैं। यदि जीवन चलाने के लिये, ग्राहक पटाने के लिए, दुकानदारी जमाने के लिए, किसी को शीशी में उतारने के लिए आपने यह किया है तो कहना चाहिए कि जानवरों से आप में कोई नवीनता नहीं है। • जैसे जल को ऊपर चढ़ाने के लिए नल की अपेक्षा होती है वैसे ही जीवन की धारा को ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए सत्संग, शास्त्र-श्रवण और शिक्षा का सहारा अपेक्षित है। भौतिकता के प्रभाव में जो लोग जीवन को उन्नत बनाना भूल जाते हैं वे संसार में कष्टानुभव पाते हैं और जीवन को अशान्त बना लेते हैं। जैनधर्म
• लोग आरोप लगाते हैं कि जैन धर्म व्यक्ति का स्वार्थ साधता है, समाज-हित की बात नहीं कहता। वह व्यक्ति में स्वार्थीपन की भावना जगाता है। वह हर आदमी को, अपनी आत्मा का कल्याण करो, अपना जीवन बनाओ, यह शिक्षा देता है । जैन धर्म समाज-हित की बात नहीं कहता है। लेकिन वस्तुतः ऐसा कहने वाले भाइयों में इस सम्बन्ध का सही ज्ञान नहीं है। वे वास्तविक मूल रूप को नहीं समझ रहे हैं। भगवान् महावीर केवल व्यक्ति के