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________________ द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३७५ व्यक्तिगत जीवन को ऊँचा उठाने की बात ही नहीं कह रहे हैं, अपितु साथ में व्यक्ति का अपना जीवन सुधारने के साथ विश्व-कल्याण का संदेश भी दे रहे हैं। यहाँ थोड़ा सा फर्क है। व्यक्ति अपना व्यक्तिगत जीवन निर्मल करता हुआ दूसरों के जीवन को निर्मल बनाता है। दुनिया के कई दूसरे मत, संप्रदाय, पार्टियाँ या राजनीतिक टुकड़ियाँ, जहाँ लोक हित, जन उपकार करने के मार्ग में व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन को निर्मल करना भुला देते हैं, वहाँ हमारी जैन परम्परा कहती है कि पहले खुद का खयाल रखो, ऐसा नहीं होगा तो पददलित हो जाओगे। विश्वकल्याण की बात करते जाओ, कहीं ऐसा नहीं हो कि दूसरों के हित की बात करते हुए घर में अन्धेरा ही रहे। महावीर का कल्याण मार्ग केवल उपदेश के लिए ही नहीं है, लेकिन स्वयं महावीर इस पर चले हैं। पहले स्वयं उन्होंने अपने जीवन को बनाया और फिर संसार को उपदेश दिया। संसार को सुधारने के लिये उन्होंने कोई जाति नहीं पकड़ी, कोई प्रान्त नहीं पकड़ा, कोई देश नहीं पकड़ा। उन्होंने किसी पंथ या सम्प्रदाय के दायरे को नहीं पकड़ा। लेकिन उन्होंने अपनी आत्म-शुद्धि के साथ-साथ सारे विश्व के प्राणियों को उपदेश दिया। आर्यों में जो जैन कुल में जन्मे थे, पार्श्वनाथ की परम्परा में चल रहे थे उनको तो कल्याण के मार्ग पर चलाया ही, लेकिन जो अनार्य थे उनको भी धर्म के मार्ग पर लाकर आर्य बनाया, धर्मी बनाया, बाल को पंडित बनाया , जिससे उनका इहलोक और परलोक सुधर गया। महावीर ने स्वयं ऐसा किया है और हमको भी इस तरह चलने का संदेश दिया है। उसी रास्ते पर चलते हुए हमें पवित्र मंगल कार्य की आराधना करते हुए अपने जीवन को शुद्ध करके व्यक्ति-धर्म और समाज-धर्म दोनों का पालन करना है। • जैन परम्परा नियतिवादी नहीं है, कर्मवादी नहीं है, भाग्यवादी नहीं है। जैन परम्परा भगवंतवादी भी नहीं है। वह आत्मवादी है, पुरुषार्थवादी है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि मानव ! यदि तेरे को कर्मों के बंधन काटने हैं तो अपने आप पुरुषार्थ करता जा। यदि तू अपने आप जगकर चला तो आवरण दूर हो जाएगा। लेकिन जगकर | नहीं चला तो आवरण दूर होने वाला नहीं है। • भूल जाइये आप इस बात को कि जैन धर्म का ठेका अग्रवालों, खण्डेलवालों, ओसवालों, पोरवालों अथवा अन्य जैन कही जाने वाली जातियों ने ही ले रखा है। धर्म की साधना में वस्तुतः कुल का सम्बन्ध नहीं, मन का सम्बन्ध है। हाँ, इस दृष्टि से आप भाग्यशाली हैं कि जैन कुल में उत्पन्न हुए हैं। परम्परागत कुलाचार के फलस्वरूप आप सहज ही अनेक प्रकार के दुर्व्यसनों से, अनेक प्रकार की बुरी प्रवृत्तियों से बच गये हैं। इतने से ही यदि आप लोग निश्चिन्त हो गये और चारित्र में आगे कदम नहीं बढ़ाया तो आत्मकल्याण नहीं कर सकेंगे। - ज्ञान/अज्ञान • अज्ञान दशा में सुमार्ग या सन्मार्ग की ओर रुचि नहीं होती। तब आरम्भ, परिग्रह, विषय, कषाय आदि की ओर मन, वाणी एवं काया की जो प्रवृत्ति होती है अथवा जो पुरुषार्थ होता है, सारा का सारा कर्मबंध का कारण होता ये जो भौतिक पदार्थ धन, धान्य इत्यादि हैं, इनके कितने ही स्वामी बदल गये। फिर आप कैसे कहते हैं कि ये मेरे हैं। यह नगीना मेरा है, यह हवेली मेरी है, यह बंगला मेरा है इत्यादि । यह जो मेरेपन की बात है या जो बोध है, उसके बारे में शास्त्रों में कहा गया है कि अज्ञान के कारण प्राणी ऐसा समझ रहा है।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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