SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 433
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३६९ सजीव नहीं होने के कारण मकान को कर्म-बंध नहीं हुआ। यदि कोई सजीव चीज़ जैसे घोड़ा, हाथी, गाय है, उसके लिए झगड़ा हो जाए तो क्या गाय को भी कर्म-बंधन होगा? नहीं। क्योंकि वह उदासीन है। किसी को | हानि-लाभ पहुंचाने में वह सक्रिय भाग नहीं ले रही है। उसमें समझ नहीं है। दूसरी तरफ एक पड़ौसी है, वह || कहता है कि क्यों ठंडे पड़ गये हो? क्यों मकान हाथ से गंवा रहे हो? मालूम होता है खर्च से डर गये। इस || तरह अन्याय के समक्ष दब जाओगे तो कमजोरी दिखेगी, इसलिए कोर्ट में दावा दायर करना चाहिए। एक तरफ तो झगड़े का कारण पड़ौसी बना, दूसरा कारण मकान बना। इन दोनों में क्या फर्क है? एक कारण तो मकान है, वह उदासीन है। वह सहायक कारण अवश्य है, पर किसी को भी प्रेरणा नहीं देता। दूसरा कारण पड़ौसी है, जो प्रेरणा देता है। इसलिए कर्मबंधन प्रेरक को हुआ। यद्यपि वह लड़ा नहीं है, कोर्ट में फरियाद वह नहीं कर रहा || है। लड़ने की क्रिया कौन करता है? गृहस्वामी । लेकिन पड़ौसी प्रेरक है, इसलिए उसको कर्मबंधन होगा। नमिराज को ज्ञान किससे हुआ? चूड़ी से। चूड़ी जड़ होने के कारण उदासीन कारण बनी। अतः किसी प्रकार के कर्मबंध की भागीदार नहीं बनी। यदि आप किसी के धर्म-ध्यान के निमित्त बन जाएँ, जीवन भर धर्म-प्रेरणा देने का संकल्प करें तो आपको धर्म-दलाली मिलेगी और प्रेरक हेतु होने के कारण आप निश्चित रूप से पुण्य लाभ के भागी बनेंगे। आपका जीवन उदासीन कारण की तरफ, शुभ-अशुभ निमित्त की तरफ प्रतिपल बढ़ता जा रहा है। किसी बहिन के तन पर अच्छा गहना, कपड़ा देखकर मन में दुर्भावना पैदा हो जाए, मन में क्लेश पैदा हो जाए, आपके कपड़ों के पहनावे वेश-भूषा, खर्च आदि को देखकर दूसरों के मन में राग-द्वेष उत्पन्न हो जाये तो आपने तो उससे कुछ नहीं कहा तथापि आप उसकी पापवृत्ति में निमित्त बने, आपका खान-पान, आपका पहनना-ओढ़ना, मकान बनाना आदि सारे दुनिया के व्यवहार प्रेरक बने, अशुभ निमित्त के लिए। इसलिए आप पाप के भागीदार बने। यदि आप आत्म-सुख के प्रेरक निमित्त बनेंगे तो लाभ के भागीदार बनेंगे। , एक बार कृष्ण ने सोचा-"मैं धर्म कर्ता तो नहीं बन सकता, लेकिन मैं धर्म-मार्ग का प्रेरक क्यों नहीं बनूं? जो करता है उसका अनुमोदक क्यों नहीं बनें ?" जो लोग तन से, मन से, वाणी से धर्म की दलाली करते हैं, खुद नहीं कर सकें तो भी दूसरों को करने की प्रेरणा देते हैं, साधना-मार्ग पर आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं, उनको उसकी दलाली अवश्य मिलती है। कृष्ण ने सहायक, प्रेरक, अनुमोदक बनकर एकान्त पुण्य का खजाना इकट्ठा किया और वे तीर्थंकर पद के अधिकारी बन गये। श्री कृष्ण का उदाहरण प्रेरक निमित्त का उदाहरण है। सिद्ध भगवान कर्म काटने के निमित्त हैं और साधुजी भी कर्म काटने के निमित्त हैं। दोनों में क्या अन्तर है? सिद्ध निमित्त बने अक्रिय होकर और सन्त निमित्त बने सक्रिय होकर । साधु में भी हमारी आत्मा को तारने की शक्ति है तथा सिद्ध परमात्मा पूर्ण ज्ञानी, अक्रिय एवं वीतराग हैं, वे अक्रिय होकर भी हमारी आत्मा को तारते हैं और संत सक्रिय होकर तारते हैं। अकर्ता सिद्ध परमात्मा से अपनी अन्तरात्मा का तार जोड़कर अपने अन्तर्मन को उस प्रभु में लगाकर साधक तिर सकता है। दोनों में अन्तर यह है कि अकर्ता को निमित्त बनाया जाता है और कर्ता निमित्त बनता है, कर्ता प्रेरक उपादान को जागृत करने का काम प्रेरक निमित्त अच्छे ढंग से कर पाता है। प्रेरक निमित्त के द्वारा मानव मन को एक प्रेरणा मिलती है, हलचल होती है, चेतना जागृत होती है। चेतना जागृत होती है तो कुछ कर्मों का आवरण
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy