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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३६८ • कार्यकर्ता की कुशलता के सामने अर्थाभाव का कोई प्रश्न नहीं रहता । सेवाभाव से समय देने वाला अर्थदाता से भी अधिक सम्मान योग्य होता है, यह समझकर समाज कार्यकर्ताओं का सम्मान करे, उन्हें प्रोत्साहित करे, और कार्यकर्ता भी मातृ-पितृ सेवा की तरह समाज सेवा को अपना कर्तव्य समझकर काम करे तो सफल कार्यकर्ता तैयार हो सकते हैं। आज धन-जन एवं बुद्धि सम्पन्न होकर भी जैन समाज योग्य कार्यकर्ताओं के अभाव में सम्यक् ज्ञान और क्रिया का प्रचार-प्रसार नहीं कर पा रहा है । · विदेशी प्रचारकों और राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को देखते हैं तब विचार होता है कि अनार्य कहे जाने वाले लोग देश, धर्म व समाज के लिये घरबार का मोह छोड़कर जीवन अर्पण कर देते हैं, फिर क्या कारण है कि वीतराग संस्कृति में वैसे कार्यकर्ता आगे नहीं आते। तरुण पीढ़ी इस पर गहराई से विचार करे, और इस कार्य में आगे बढे, समाज में ऐसे कार्यकर्ता सुलभ हों, यही शुभेच्छा है । कार्य-कारण ( उपादान - निमित्त) प्रत्येक कार्य की निष्पत्ति में उपादान और निमित्त, ये दोनों ही कारण होते हैं। यह नहीं समझिये कि कभी किसी कार्य में एक कारण से ही कार्य सिद्धि हुई है। ऐसा न कभी हुआ है और न कभी होता है। जिस तरह मंथन करने वाला मथेरणा दधि से मक्खन निकालता है, तब मंथन क्रिया करते समय क्रमशः एक हाथ पीछे रहता है तो दूसरा हाथ आगे । दोनों हाथों से क्रिया चलती है लेकिन एक हाथ आगे और दूसरा हाथ पीछे चलता है । इसी तरह ज्ञान-प्राप्ति में कभी निमित्त आगे और उपादान पीछे रहता है तो कभी उपादान आगे और निमित्त पीछे रहता है। हमारे यहाँ जिनशासन में अनेकान्त दृष्टिकोण है। इसमें व्यवहार और निश्चय ही मुख्य है। कभी व्यवहार आगे रहता है तो निश्चय पीछे और कभी निश्चय आगे तो व्यवहार पीछे रहता है। गौण एवं प्रधानता से दोनों को लेकर चलना है । • कारण दो प्रकार के होते हैं एक प्रेरक और दूसरा उदासीन। घर में घड़ी लगी हुई है और उसमें ८.३० बज गये तो व्याख्यान में जाने का समय हो गया। घड़ी व्याख्यान के समय की याद दिलाने में कारण हुई। एक घर में माताजी, पिताजी या पुत्र ने कहा- 'अभी तक तैयार नहीं हुए हो, मालूम है कि साढ़े आठ बज गये हैं। जल्दी करो । व्याख्यान में जाना नहीं है क्या ?' घड़ी एवं घर वालों में अन्तर यह है कि घड़ी टाइम बताती है लेकिन प्रेरणा नहीं करती । अतः यह उदासीन कारण बनी, और घर के सदस्य प्रेरक कारण बन गये । • जो उदासीन कारण होता है, उसको वस्तुतः न तो पाप ही होता है और न पुण्य ही । जैसे पढ़ने के लिए पोथी उदासीन कारण है। पोथी क्या जाने कि वह ज्ञान में सहायक निमित्त कारण बन गई है। • मान लीजिए कि दो भाइयों के बीच में झगड़ा हो गया। दो मकान थे, एक तो गली में था और दूसरा बाजार में। बाजार वाले मकान पर दोनों भाइयों की नजर थी। लेकिन बड़ा भाई बाजार वाले मकान को अपने कब्जे में रखना चाहता था । गली वाला दूसरा मकान उसने छोटे भाई को दे दिया। मकान के निमित्त से झगड़ा पड़ गया। वह मकान झगड़े में उदासीन कारण बना। यदि मकान बीच में नहीं होता तो शायद भाइयों के बीच झगड़ा नहीं होता। वह मकान अच्छी जगह था, इसलिए उसकी अच्छी कीमत आ सकती थी। अच्छा किराया आ सकता था। इसलिए दोनों भाइयों की नजर उस पर थी। एक का ममत्व बढ़ गया, इसलिए दूसरे को भी झगड़ा करने का मौका मिल गया, कोर्ट तक जाने की नौबत आ गई। मकान के निमित्त झगड़ा हुआ, लेकिन
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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