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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३६७ हिंसा तो तत्क्षण असंदिग्ध रूप से हो ही जाती है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि में फंस कर प्राणी सर्वप्रथम स्वयं की, आत्मा की हिंसा करता है। क्रोध, मान, माया, लोभ, आदि से हमारी स्वयं की हिंसा हो रही है, यह हमने सम्यग् रूप में जाना नहीं है, इसीलिए बार-बार इस रास्ते पर लग रहे हैं। यदि हम यह भली-भांति जान लें, विषय-कषायों के आत्मघाती भयावह परिणामों को समीचीनतया समझ लें, तो फिर इस रास्ते पर कभी लगेंगे ही नहीं। • पुलिस का आदमी ३०३ बोर राइफल से किसी के शरीर पर ही फायर करता है, किन्तु क्रोध, मान, माया, लोभ के सिपाही तो आत्मगुणों की अमूल्य निधि पर फायर कर उसे विनष्ट कर देते हैं। पुलिस के सन्तरी द्वारा किये गये फायर से किसी व्यक्ति के शरीर के किसी भाग में चोट लग सकती है। उसका हाथ टूट सकता है। पैर टूट सकता है और कदाचित् किसी भाई का इस जन्म का शरीर भी छूट सकता है। किन्तु विषय-कषायों, क्रोध, मान, माया, लोभ के संतरियों द्वारा किये गये फायरिंग से भले ही किसी का इस जन्म में हाथ, पैर अथवा गला न भी कटे, पर उसके अनेक जन्म-जन्मातरों तक के लिए, असंख्य काल और यहाँ तक कि अनन्तानंत काल तक के लिए भी हाथ, पैर, नाक, कान, मुख कट सकते हैं अर्थात् उसका निगोद में पतन हो सकता है, तिर्यंच, नारकादि गतियों में अधोगमन हो सकता है। क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय से, संयम से, साधना से, धर्म की आराधना और धर्म के आचरण से स्व-पर के आत्मदेव की रक्षा हो सकेगी। जिन महापुरुषों ने क्रोध, मान, माया, लोभ पर विजय प्राप्त कर अपने आत्मगुणों की तथा अन्य आत्माओं की रक्षा की है, इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों में अंकित उनके जीवन-चरित्र प्रकाश-स्तम्भ के समान हमें मार्गदर्शन करते रहते हैं। जैसे गर्म भट्टी पर चढ़ा हुआ जल बिना हिलाए ही अशान्त रहता है उसी प्रकार मनुष्य भी जब तक कषाय (विकार) की भट्टी पर चढ़ा रहेगा, तब तक अशान्त और उद्विग्न बना रहेगा। जल की दाहकता को मिटाने के लिए उसे गरम भट्टी से अलग रखना आवश्यक है, वैसे ही मनुष्य को भी अपने मन की अशान्त स्थिति से निपटने के लिए क्रोध, लोभादि विकार से दूर रहना होगा। जल का स्वभाव ठंडा होता है। अतः वह भट्टी से अलग होते ही अपने पूर्व स्वभाव पर आ जाता है, ऐसे ही शान्त-स्वभावी आत्मा भी कषाय से अलग होते ही शान्त बन जाता है। अनियंत्रित लोभ या क्रोध व्यावहारिक जीवन को कटु बना देता है और वैसी परिस्थिति में साधक का लोक-जीवन भी ठीक नहीं बन पाता । वह माता-पिता, परिजन एवं बन्धु-बान्धव आदि के प्रति भी ठीक व्यवहार नहीं रख पाता । वस्तुत: लोभ व लालसा आदि पर अकुंश लगाने वाला ही जीवन में सुखी बनता है। कार्यकर्ता आज के समाज को धन या जन की कमी नहीं, कमी है तो सेवाभावी कार्यकर्ता की। यों तो समाज में हजारों कार्यकर्ता हैं और भविष्य में भी होते रहेंगे, पर संस्था या समाज को अपना समझकर || घरेलू हानि-लाभ का बिना विचार किये अदम्य साहस व पूर्ण प्रामाणिकता से लगन पूर्वक कार्य करने वाले | कार्यकर्ता दुर्लभ हैं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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