________________
३६६
नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं
परामर्श देने वाला होता है। उसी तरह आत्म-शक्ति पर पड़े हुए कर्म रूपी मलबे को दूर करने के लिए प्रयत्न तो हमको स्वयं करना है। सहारे के रूप में, मार्ग-दर्शक के रूप में शास्त्रों और सद्गुरुओं का सहयोग लिया जाता है। सद्गुरु और शास्त्र, हमें मलबा कैसे दूर किया जाए, इसका उपाय बता सकते हैं ।
• जीव में जिस प्रकार कर्म को करने की योग्यता है, उसी तरह कर्मों से मुक्त होने की भी योग्यता है ।
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि प्राणी स्वयं द्वारा उपार्जित शुभ कर्मों की प्रेरणा अथवा प्रभाव से जिस प्रकार स्वर्ग में जाता है, उसी प्रकार अशुभ कर्मों के प्रभाव अथवा उनकी प्रेरणा से नरक में भी जाता
है 1
•
जैन दर्शन की यह मान्यता है कि आत्मा कर्म करने में स्वाधीन है, किन्तु कर्मों के फल को भोगने में पराधीन अर्थात् कर्मों के अधीन है। जैन दर्शन की यह भी मान्यता है कि आत्मा जिस प्रकार कर्म करने में स्वाधीन है, उसी प्रकार कर्मों को निरस्त करने अथवा नष्ट करने में भी स्वाधीन है, स्वतंत्र है ।
• संसार में प्राणिमात्र के साथ मोह लगा हुआ है। वही जीव को नचाता है । साधक ज्ञान से मोह को नियन्त्रित करता है। वह कर्मफल को भोगते हुये और शुभाशुभ प्रवृत्ति के बीच रहकर भी हल्का रहता है । कहा भी है
समझँ शंके पाप से, अणसमजूं हर्षन्त ।
वे
लूखा 'वे चीकणा, इणविध कर्म बढन्त ।
• आप शंका करेंगे कि मनुष्य संचित कर्म के उदय से ही कर्म करता है, फिर उसे पाप क्यों लगता है ? शास्त्रकार ने कहा है कि वर्तमान क्रिया में होने वाला मानसिक रस ही पाप का प्रधान कारण है।
1
कर्मबंध का मूल कारण राग-द्वेष यदि सूख गया, ढीला पड़ गया, खत्म हो गया तो कर्मवृक्ष भी सूख जायेगा । जिस किसी झाड़ का मूल (जड़) यदि सूख जाय तो ऊपर के पत्ते, डालियाँ, फूल, फल, हरे भरे कितने दिन रहेंगे ? तत्काल तो खत्म नहीं होंगे, लेकिन कुछ दिनों के बाद नष्ट हो जायेंगे ।
कर्मों को घटाने का मतलब है- कर्मों की परिणति क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, रोष, मोह, मिथ्यात्व आदि-आदि रूपों में जो हमारे मन में, अथवा आचरण में, हम रात-दिन अनुभव कर रहे हैं, देख रहे हैं, उसे कम करना, उसके असर को घटाना ।
■ कषाय
• एक घर नहीं, एक ग्राम नहीं, एक नगर नहीं, घर-घर में क्रोध, मान, माया, लोभ और विषय - कषायों के दुष्परिणामों के दृश्य प्रतिदिन देखने को मिलते हैं। आप में से प्रायः प्रत्येक को इसका कटु अनुभव अवश्य होगा। जिस दिन आप क्रोध के अधीन रहे, उस दिन आपका चिन्तन ठीक तरह से नहीं चला, सामायिक समभाव से नहीं हुई, स्वाध्याय में मन लगा नहीं, किसी भी कार्य में ठीक तरह से चित्त लगा नहीं और बिना बीमारी के बीमार हो गये। इस प्रकार क्रोध, मान, माया, लोभ में आसक्ति का कटु फल न केवल एक-दो बार ही, अपितु अनेक बार भोग चुकने के उपरान्त भी पुनः पुनः उन्हीं विषय कषायों से प्यार करते रहे तो निश्चित रूप से यही कहा जाएगा कि हमारा ज्ञान भ्रान्त है, मिथ्या है।
• आपने किसी पर क्रोध किया तो क्रोध करते ही आपने सर्वप्रथम अपने आत्मगुणों की हिंसा कर डाली । क्रोध करने पर क्या किसी के मन में, मस्तिष्क अथवा हृदय में शान्ति रहेगी, आत्मा का सत् स्वरूप रहेगा ? नहीं, क्रोध करते ही ये सब गुण नष्ट हो जाएंगे। क्रोध करने से हो सकता है कि दूसरे की हिंसा न भी हो, पर स्वयं की