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हस्ती उवाच
(आचार्यप्रवर के प्रवचनों एवं दैनन्दिनी से संकलित विचार)
. अनेकान्तवाद/स्याद्वाद
जिस प्रकार सत्य के साक्षात्कार में हमारी अहिंसा स्वार्थ-संघर्षों को सुलझाती हुई आगे बढ़ती है, उसी प्रकार | स्याद्वाद जगत् के वैचारिक संघर्षों की अनोखी सुलझन प्रस्तुत करता है। आचार में अहिंसा और विचार में स्याद्वाद जैन दर्शन की सर्वोपरि मौलिकता है। स्याद्वाद को दूसरे शब्दों में वाणी और विचार की अहिंसा भी |
कहा जा सकता है। • किसी भी वस्तु या तत्त्व के सत्य स्वरूप को समझने के लिए हमें अनेकान्त सिद्धान्त का आश्रय लेना होगा। एक
ही वस्तु या तत्त्व को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है और इसलिए उसमें विभिन्न पक्ष भी उपलब्ध होते हैं। इन सारे पक्षों या दृष्टिकोणों को विभेद की दृष्टि से नहीं, अपितु समन्वय की दृष्टि से समझकर वस्तु की यथार्थ सत्यता का दर्शन करना ही इस सिद्धान्त की गहराई में जाना है। किसी वस्तु विशेष के एक ही पक्ष या दृष्टिकोण को उसका सर्वांग स्वरूप समझकर उसे सत्य के नाम से पुकारना मिथ्यावाद या दुराग्रह का कारण बन जाता है। विभिन्न पक्षों या दृष्टिकोणों के प्रकाश में जब तक एक वस्तु का स्पष्ट विश्लेषण न कर लिया जाए तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि हमने उस वस्तु का सर्वाङ्ग स्वरूप समझ लिया है। अतः किसी वस्तु को विभिन्न दृष्टिकोणों के आधार पर देखने, समझने व वर्णित करने
वाले विज्ञान का नाम ही स्याद्वाद है। सिद्धान्त रूप में इसे अनेकान्तवाद या अपेक्षावाद भी कहा गया है। • एक ही व्यक्ति अपने अलग-अलग रिश्तों के कारण पिता, पुत्र, काका, भतीजा, मामा और भानजा आदि हो
सकता है, किन्तु वह अपने पुत्र की दृष्टि से पिता है तो पिता की दृष्टि से पुत्र । ऐसे ही अन्य संबंधों के व्यावहारिक उदाहरण आप अपने चारों ओर देखते हैं। इन रिश्तों की तरह ही एक व्यक्ति में विभिन्न गुणों का विकास भी होता है। अतः यही दृष्टि वस्तु के स्वरूप में लागू होती है कि वह भी एक साथ सत्, असत्, नश्वर
या अनश्वर, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष, क्रियाशील-अक्रियाशील, नित्य-अनित्य गुणों वाली हो सकती है। • आज संसारी मानव ताज्जुब करेंगे कि जहाँ उत्पाद है, वहाँ नाश कैसा और जहाँ नाश है वहाँ उत्पाद कैसा, धौव्य
कैसा? लेकिन जैन तत्त्व-ज्ञान की यह बड़ी खूबी है कि जैन तत्त्वज्ञाता हर पदार्थ को दो दृष्टियों से देखते हैं-द्रव्यदृष्टि से और पर्यायदृष्टि से । द्रव्यदृष्टि से प्रत्येक द्रव्य ध्रुव नित्य है। पर्याय की दृष्टि से उसमें उत्पाद और व्यय भी हैं। उत्पाद और व्यय दोनों एक साथ कैसे ? यह भी अतिशय ज्ञानियों के ज्ञान का चमत्कार है। उन्होंने कहा कि पहली पर्याय के क्षय के साथ ही साथ नई पर्याय की उत्पत्ति का प्रारम्भ होता है। इस स्थिति में पूर्व पर्याय का विनाश और उसके विनाश के बाद होने वाला उत्पाद दोनों एक रूप में चलने वाले हैं।