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________________ (द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड ३५५ अनर्थ-दण्ड • बिना प्रयोजन के हिंसादि पाप का सेवन अनर्थ-दण्ड है। अनर्थ-दण्ड से अणुव्रतों की मर्यादा सुरक्षित नहीं रहती। अनर्थ-दण्ड छोड़ने वाला, अर्थ-दण्ड की भी कुछ सीमा करता है। द्रव्य, क्षेत्र और काल से वह अर्थदण्ड का त्याग। कर सकता है। • अनर्थ-दण्ड के प्रमुख कारण हैं १. मोह २. अज्ञान तथा ३. प्रमाद । प्रमाद से आचरित सभी कर्म अनर्थ-दण्ड हैं। अपध्यान से भी अनर्थ-दण्ड होता है। आवश्यक निद्रा अर्थ-दण्ड है ।। और अनावश्यक अनर्थ-दण्ड । यह प्रमादकृत अनर्थ है। आज अनर्थ-दण्ड का प्रसार जोरों पर है। जीव-हिंसा के साधन नित नए-नए बनते जा रहे हैं। खटमल और मच्छरों को मारने की दवा, मछली पकड़ने के कांटे चूहे-बिल्ली को मारने की गोली और न जाने क्या-क्या । हिंसावर्धिनी वस्तुओं को बनाने में मानव मस्तिष्क उलझा हुआ है। ये सारे अनर्थ-दण्ड हैं, जिनसे बचने में ही || जीव का कल्याण है। विवेक से काम लिया जाय तो कौतूहल, शृंगार, सजावट और दिलबहलाव के लिए की जाने वाली निरर्थक हिंसा से मनुष्य सहज ही बच सकता है। ऐसा करके वह अनेक अनर्थों से बचेगा और राष्ट्र का हित करने में भी अपना योगदान कर सकेगा। अशुभ, शुभ और शुद्ध • हमको अशुभ से शुभ में आना है और शुभ में आकर भी विराम नहीं करना है, टिकना नहीं है, शुभ से संतुष्ट । नहीं होना है। शुभ क्रिया से शुद्ध की ओर आगे बढ़ना है। शुद्ध क्रिया से आगे बढ़कर अक्रिय हो जाना है। संसार के सामान्य प्राणी अशुभ क्रिया में सदा रचे पचे होते हैं। अशुभ में रहने के लिये, अशुभ क्रिया में पड़ने || के लिये उनको कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आप सामायिक करने बैठते हैं, स्वाध्याय और ध्यान करने बैठते हैं उस समय यदि शुभ विचारों से चिंतन करेंगे | तो बहुत अच्छा रहेगा। अशुभ से शुभ की ओर बढ़ेंगे। मनुष्य जन्म मिला है तो शुभ और शुद्ध क्रिया करने के लिये मिला है। अशुभ क्रिया के अधिकारी अनन्त जीव हैं। शुभ क्रिया के अधिकारी अनन्त जीव नहीं होते, ।। असंख्यात जीव होते हैं, लेकिन शुद्ध क्रिया के करने वाले संख्यात जीव ही होते हैं। अहंकार साधना में सबसे खतरनाक अहंकार है। विद्या पढ़ते-पढ़ते यदि अहंकार आ गया कि मैं पण्डित हूँ, औरों से || अधिक विद्वान् हूँ या तपस्या करते-करते अहंकार आ गया कि इतनी मंडली में तपस्या करने वाला मैं ही एक हूँ | और सब कम तपस्वी हैं। इस प्रकार यदि विद्वान् को विद्या का, साधना करने वाले को साधना का और दानी | को दान का अहंकार हो गया तो यह संभव नहीं है कि उसकी उन्नति होगी या वह आगे बढ़ सकेगा।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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