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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३५२ . शब्द में, अक्षर में ऐसी शक्ति है कि यदि उसके साथ इच्छा-शक्ति को जोड़ दिया जाए तो शब्द वह काम कर सकता है जो बड़े-बड़े वैज्ञानिक यंत्र भी नहीं कर सकते। साधक जब ज्ञान का प्रकाश पा लेता है तब वह भौतिकता के सारे लुभावने आकर्षणों से दूर हट जाता है। • ज्ञान का बल न होने से मानव इच्छा पर नियंत्रण नहीं कर पाता और रात-दिन आकुलता का अनुभव करता है। ज्ञान की बागडोर यदि हाथ लग जाए तो चंचल मन तुरंग को वश में रखा जा सकता है। इसके लिए सत्संगति और सशिक्षा उपयोगी साधन हैं। • व्यवसायियों का यदि दिलदिमाग शुद्ध होगा तो वे करोड़ों लोगों को अच्छे मार्ग में लगाने के भी निमित्त बन | सकते हैं। यदि व्यवसायियों का दिल-दिमाग अशुद्ध है तो करोड़ों लोगों का दिल-दिमाग बिगड़ सकता है। • आप परिग्रह के प्रति ममत्व के भीतरी बन्धन को ढीला करेंगे, तभी परिग्रह को घटा सकेंगे, अपरिग्रही बन सकेंगे, अन्यथा नहीं। • आपको शासन-प्रभावना के कार्य करने हैं तो अनेक रास्ते हैं, जिनसे आप सच्चे - अर्थ में शासन की प्रभावना कर सकते हैं। व्यर्थ ही द्रव्य लुटाकर थोथा आडम्बर दिखाना, कोई बुद्धिमत्ता नहीं है। • अर्थ की गुलामी से छुटकारा पाने के लिये कामना को कम करना पड़ेगा। • समाज में यदि स्वाध्याय को बढ़ावा दिया जाए तो इससे ज्ञान-वृद्धि होगी और ज्ञान से वैर, ईर्ष्या, द्वेष आदि का शमन होगा, झगड़े टंटे नहीं रहेंगे। • उपदेश देने वाले तो बहुत मिल जायेंगे, पर जीवन में उतारने से ही सच्चे मायने में जीवन-निर्माण हो सकेगा और इसके लिए स्वाध्याय परमावश्यक है। धर्म वही अच्छा है जिसमें आत्मोत्थान के साथ समाज-सेवा की भावना हो। मानव-सेवा से ही धर्म को आगे बढ़ाया जा सकता है । • स्वाध्याय से ज्ञान की उपासना बढ़ेगी और ज्ञान की उपासना बढ़ेगी तो समाज में शान्ति होगी, राष्ट्र में शान्ति होगी, विश्व में शान्ति होगी। यदि जीवन बनाना है, जीवन का निर्माण करना है तो प्रत्येक को स्वाध्याय करना पड़ेगा। स्वाध्याय के बिना ज्ञान की ज्योति नहीं जगेगी। • स्वाध्याय शुद्धि का मार्ग भी बताता है, और स्वयं शोधक तत्त्व (निर्जरा) भी है। • सत्य शब्दों में नहीं कहा जाता, वह अनुभव जन्य है। • दुःख का मूल कर्म और कर्म के बीज राग-द्वेष हैं। दुःख मिटाने के लिए राग-द्वेष मिटाना आवश्यक है, जो ज्ञानपूर्वक अभ्यास से ही हो सकता है। • प्रत्येक श्रावक को यह सोचना चाहिए कि वह दिन धन्य होगा, जिस दिन अपने परिग्रह में से थोड़ा दान शुभ कार्यों के लिए निकालूँगा। मानव जितना-जितना ममता में उलझकर कार्य करेगा, वह उसके लिए भंवरजाल में फंसाने वाला होगा। आप समझते हैं कि देवता रक्षा करेंगे और देव यह समझते हैं कि धर्म रक्षा करेगा। देव, देवेन्द्र भी काम पड़ने पर धर्म की शरण ग्रहण करते हैं।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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