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द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
• पाप की कालिमा से कलुषित जीव को जो पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं। • मन, वचन एवं काय योग की शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म का बन्ध होता है। अतः शुभयोग को पुण्यास्रव और ||
उससे होने वाले शुभ कर्म के संचय को पुण्य बन्ध कहा है। • सम्यक् ज्ञान के बिना व्यावहारिक शिक्षण का कोई मूल्य नहीं। • सम्यक् ज्ञान आँख में तारा-सा है। • अहिंसा से अमीर-गरीब मानव मात्र सुखी हो सकता है। • देव, गुरु, धर्म और सत्शास्त्र लोकोत्तर आवश्यक हैं। • संयम उभय लोक हितकारी है। • सब जीवों को आत्मवत् देखना, सम्यग्ज्ञान का लक्षण है। • पूर्ण कला प्रगट करने के लिए ज्ञान-क्रिया की साधना आवश्यक है। • सम्यग्दर्शन सम्पन्न त्याग-तप ही भव-बंधनहर्ता है। • हिंसा और परिग्रह का गाढ़ सम्बन्ध है, परिग्रह बढ़ेगा तो हिंसा भी बढ़ेगी।
सच्चा धर्म वह है जो रागादि दोष को उत्पन्न ही न होने दे। गुरु द्वारा सारणा, वारणा, धारणा और शिष्य द्वारा ग्रहणा, धारणा एवं आसेवना चलती रहे तो साधना प्रगति कर
सकती है। • परिग्रह और आरम्भ को घटाना ही जैन का लक्षण है।
ज्ञान जघन्य होकर भी दर्शन व चारित्र की उत्कृष्ट साधना से सिद्धिदाता हो सकता है।
बालक और रोगी की तरह दुर्बल आत्मा को सबल करने के लिए अभ्यास की आवश्यकता है। • जग-जन के दुःख और संताप का कारण पापाचरण (पंच पाप) है। • अहिंसादि पांच व्रत पाप-त्याग और सुख-शांति के हेतु हैं। • अज्ञान एवं मोहवासना से मुक्ति ही स्वतंत्रता है।
नेता को भी चाहिये कि वह अपने को सर्वेसर्वा मानकर सामान्य जनों की उपेक्षा नहीं करे। बल्कि सफल नेतागिरी तो वह है जिसमें सभी के विचारों का यथायोग्य सम्मान हो। संसार में जीवों के तीन वर्ग हैं-मित्र, शत्रु और उदासीन । दयाधर्म के सिद्धान्त में पापिओं को भी प्रेम से तथा अपकारियों को भी उपकार से जीतने की आज्ञा है। सत्यवादियों की देव भी सहायता किया करते हैं। इसलिए सत्य दूसरा भगवान है। मनुष्य के लिए सत्य वंदनीय
और देव तथा असुरों के लिए पूजनीय है। जिस प्रकार तूली को माचिस की पेटी पर रगड़ने से ज्योति प्रकट होती है उसी तरह सद्गुरु या ज्ञानी की संगति
से और प्रयास करने पर आत्मा के अन्दर छुपी हुई ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है। • ज्ञान में और ज्ञान की साधना में यह शक्ति है कि उससे असंभव काम भी संभव हो सकता है।