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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३५० अव्यक्त वृत्ति है, वही लोभ कहलाती है। वह वृत्ति चित्त को निश्चल नहीं होने देती। दूसरा कारण अज्ञान है। आज देवी-देवताओं की जो उपासना चल रही है, उसका मूल कारण अज्ञान है, नासमझी है। मिथ्यात्व का पोषण समस्त पापों में बड़ा पाप है और समस्त पापों का जनक है। अगर बच्चे-बच्चियों को सिखाना है कि वे अपनी माता की सेवा करें तो पहले स्वयं अपने घर में जो बड़ी बूढी माताएं हैं, उनका सन्मान, आज्ञा-पालन और विनय करना चाहिए। उनके प्रति ऐसा नम्रतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए कि उन्हें संतोष उपजे । इस सद्-व्यवहार को देख-देख कर ही आगामी पीढ़ी इसी प्रकार के संस्कार प्राप्त कर लेगी और गृहस्थी नरक के बदले स्वर्ग के समान बनी रहेगी। जहाँ मोह का आधिक्य होगा वहाँ शोक का भी अतिरेक होगा और जहां भोग की प्रबलता होगी, वहां रोग का | साम्राज्य होगा। लोभवृत्ति मनुष्य की विचारशक्ति को कुंठित कर देती है, नष्ट कर देती है। • जिस प्रकार दर्शनशक्ति से शून्य आँखें बड़ी होकर भी व्यर्थ हैं , ठीक उसी प्रकार धर्म के बिना कुबेर का भण्डार, | भीम का बल, विज्ञानियों का विज्ञान, काम का सौन्दर्य, वसुन्धरा का धन व रत्नाकर का रत्न सब व्यर्थ हैं। संसारी जीव ने अपनी तूली (चित्तवृत्ति) को कभी धन से, कभी तन से और कभी अन्य सांसारिक साधनों से रगड़ते-रगड़ते अल्प सत्त्व बना लिया है। अब उसे होश आया है और वह चाहता है कि तूली की शेष शक्ति भी कहीं इसी प्रकार बेकार न चली जाए। अगर वह शेष शक्ति का सावधानी के साथ सदुपयोग करे तो उसे पश्चात्ताप करके बैठे रहने का कोई कारण नहीं है, उसी बची-खुची शक्ति से वह तेज को प्रस्फुटित कर सकता है, क्रमशः उसे बढ़ा सकता है और पूर्ण तेजोमय भी बन सकता है। वह पिछली तमाम हानि को भी पूरी कर सकता है। परिवार में शिक्षा देने के प्रसंग से समूह के बीच किसी की व्यक्तिगत न्यूनता नहीं कहना चाहिए। मुखिया को निद्राजित् और भयजित् होना आवश्यक है, प्रातः एवं सन्ध्या असमय में निद्रा लेने से वह परिवार को सम्भाल नहीं सकेगा और ज्ञान-श्रवण व स्वाध्याय नहीं होगा। • गगन में सूर्योदय अन्तर में ज्ञानोदय की प्रेरणा करता है। • मोह और अज्ञान के धूम्र एवं मेघावरण को दूर करने से अन्तर में ज्योति प्रकट हो सकती है। • राग को गलाने से क्लेश-मुक्ति होती है। • सम्यग्दर्शी परिग्रह को बन्धन मानता और मिथ्यात्वी बन्दी खाने को घर मानता है। एक राग को गलाता है तो दूसरा फलाता है। • सूक्ष्म शरीर के त्याग के बाद चेतन द्रष्टा मात्र है। हिंसा और परिग्रह छोड़ने से ही विश्वशान्ति हो सकती है। • भूमि पर रहने वाला मानव पदार्थों पर अधिकार जमाये बिना रहना सीखे तो वैर एवं संघर्ष का नाम न रहे। • साधना का क्रम विनय से ज्ञान, दर्शन, चारित्र और मोक्ष की प्राप्ति है। • धर्म को साधना का रूप दिया जाय, न कि रिवाज के रूप में रहे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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