________________
३४९
(द्वितीय खण्ड : दर्शन खण्ड
होने पर भी आत्मा में पारमात्मिक तेज प्रस्फुटित नहीं होता। भौतिकज्ञान की प्रगति के प्रतीक बमों और राकेटों के चमत्कार को देखकर दुनिया स्तब्ध हो जाती है परन्तु दिल रूपी दर्पण में अगर ताकत पैदा हो जाय तो वह इससे भी बड़ा चमत्कार दिखा सकती है। वीतरागस्वरूप के साथ एकाकार होने के साधन है-प्रार्थना, चिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय, सत्संग, संयम आदि। आत्मा के समस्त गुण आत्मा में उसी प्रकार एकाकार हैं, जिस प्रकार मिश्री की मधुरता, शुक्लता और कठोरता आदि गुण उसमें एक रूप हैं। कितना ही शक्तिशाली यंत्र क्यों न हो, वह मिश्री की मधुरता, शुक्लता आदि का पृथक्करण नहीं कर सकता। इसी प्रकार आत्मा के गुण आत्मा से भिन्न नहीं हो सकते और परस्पर में भी भिन्न नहीं हो सकते। • पारिवारिक शान्ति वहीं कायम रहती है, जहाँ परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने सुख को गौण और दूसरे सदस्यों
के सुख को मुख्य मानकर व्यवहार करता है। • दया देवी की एक बड़ी विशेषता है। वह ज्ञान सिंह पर आसीन है और तप का त्रिशूल ग्रहण किये हुए है, फिर
भी उसके मस्तक पर विनय का मुकुट सुशोभित रहता है। • अहिंसा देवी ही मरते को बचाने वाली और पालन करने वाली है। उसी की बदौलत दुःखियों के दुःख दूर होते
है।
• मनुष्य कुछ परिमित प्राणधारियों को ही शरण दे सकता है। मगर अहिंसा भगवती की शीतल छाया तो सभी को
प्राप्त होती है। राजा को, रंक को, कीट - पतंग को, मनुष्य को, देव को, इन्द्र को और महेन्द्र को, सभी के लिए!
वह शरणदायिनी है। • सुख और दुःख का उद्भव अपने ही पुण्य और पाप से होता है। अपने पुण्य-पाप के अभाव में कोई किसी को
सुखी या दुःखी नहीं बना सकता। • अपने जीवन में तुम जितना-जितना अहिंसा का पालन करोगे, आराधन करोगे, उतना ही उतना तुम्हारे दुःख का,
शोक का, रोग का, आधि, व्याधि और उपाधि का नाश होता जायेगा। . साधक जब तक इन्द्रियों को वशीभूत नहीं कर लेता, तब तक उसका हृदय शांत नहीं हो सकता। इन्द्रियों की
चंचलता मानसिक शांति में अन्तराय रूप है। अतएव चित्त की शांति एवं स्वच्छता के लिए जितेन्द्रियता
अनिवार्य रूप से अपेक्षित है। • सच्चा साधक संकट के समय भी गड़बड़ाता नहीं है, पथविचलित नहीं होता है। हर समय उसका विवेक जागृत
रहता है। • सुखी बनने का एक ही उपाय है-कामनाओं को जीतना। अगर कामनाओं को जीत लिया है तो समझ ले कि
तूने समस्त दुःखों पर विजय प्राप्त कर ली है। जब तक मन में दुर्बलता रहती है तभी तक मनुष्य सांसारिक पदार्थों की ओर खिंचता है। दुर्बलता दूर होते ही खिंचाव भी दूर हो जाता है और चंचलता भी दूर हो जाती है। • मानसिक चंचलता के प्रधान कारण दो हैं-लोभ और अज्ञान । बाह्य पदार्थों के प्रति अनुराग की जो व्यक्त तथा