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________________ ३११ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड लौट पड़े। सभी भक्तजनों के हृदयों से यही प्रतिध्वनि व्यक्त हो रही थी 'धीर वीर निर्भीक सत्य के, अनुपम अटल पुजारी । तुम मर कर भी अमर हो गये, जय हो सदा तुम्हारी ॥' अनन्त में लीन हो चुके अपने महनीय गुरुवर्य के गुण-स्मरण करते वे असंख्य दर्शनार्थी भक्तजन अपने-अपने || गंतव्य स्थानों के लिये रवाना होने से पूर्व गंगवाल भवन में विराजित सन्त-मण्डल के दर्शनार्थ पहुंचे। उन महामनीषी को अपने अन्तिम समय का पहले से बोध था। इस दिन से लगभग साढे छह वर्ष पूर्व पूज्य चरितनायक द्वारा किया गया भविष्य-दर्शन चर्चा में सजीव हो उठा। रेनबो हाउस, जोधपुर में सन् १९८४ के चातुर्मास काल में रोगाक्रान्त होने पर जब स्वास्थ्य की स्थिति काफी नाजुक थी, तब श्रद्धेय श्री हीरामुनिजी म.सा. द्वारा सहज रूप से निवेदन किया गया था “भगवन् ! अन्तिम समय की जानकारी अवश्य कराएँ।” अध्यात्म मनीषी ने उत्तर दिया था -"भाई अभी समय नहीं आया है।” आगे अपने जीवन के अन्तिम पड़ाव के स्थान का निर्देश करते हुए आप श्री के मुख से निकल पड़ा “वहाँ बगीचा होगा, कुँआ होगा, पास में पाठशाला होगी, मन्दिर होगा, वह मकान राजमार्ग पर स्थित होगा, विशाल परिसर होगा।” श्री हीरामुनिजी म.सा. (वर्तमान आचार्यप्रवर) ने ये बातें | अपनी दैनन्दिनी में नोट कर लीं। ये सारी बातें निमाज के गंगवाल भवन के प्रसंग में वैसी की वैसी सत्य सिद्ध उस मनीषी के जीवन-दर्शन एवं साधना के उच्च मूल्यों के प्रति सभी नतमस्तक थे । संसार एवं संघ से किस प्रकार मोह रहित हुआ जा सकता है, इसका प्रयोगात्मक पाठ इस अध्यात्मयोगी से सीखा जा सकता है। जब संघ के नायक रहे तब कर्त्तव्य का निर्वाह बखूबी किया तथा जब संसार से महाप्रयाण किया तब पूरी तैयारी के साथ , आत्मरमणतापूर्वक ममत्व एवं अहंत्व का त्याग करते हुए । धन्य हैं ऐसे महापुरुष और उनकी चरम साधना। ___गंगवाल भवन में सायंकाल ५ बजे श्रद्धाञ्जलि सभा का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के वहाँ उपस्थित प्रमुख प्रतिनिधि श्रावकों ने उन दिवगंत गुरु भगवन्त को अपने अवरुद्ध कण्ठों से भावाभिभूत श्रद्धा सुमन समर्पित किये। सभा के अन्त में न्यायाधिपति श्री जसराजजी चौपड़ा ने परम पूज्य गुरुदेव द्वारा भावी संघ-व्यवस्था सम्बन्धी पूज्य गुरुदेव द्वारा स्वहस्त लिखित पत्र जो भगवन्त द्वारा संघ के वयोवृद्ध श्रावक, अनन्य संघसेवी श्रीमान् उमरावमलजी सा. ढवा एवं श्री नथमलजी हीरावत को सुपुर्द किया गया था, चतुर्विध संघ की उपस्थिति में पढ़ कर सुनाया। जिसमें पूज्य गुरुवर्य ने भावी संघ-व्यवस्था सम्बन्धी निर्देश देते हुए लिखा था कि श्री हीराचन्द्रजी म.सा. भावी आचार्य व श्रद्धेय श्री मानचन्द्रजी म.सा. संघ के उपाध्याय होंगे। पत्र के नीचे हस्ताक्षर करते हुए आपने अपना परिचय 'संघ-सेवक शोभाशिष्य हस्ती' के नाम से दिया था, जिसे सुनकर आपकी विनम्रता एवं लघुता (लघुता से प्रभुता मिले) के समक्ष उपस्थित जन समुदाय नतमस्तक था। समवेत स्वरों में आपकी-जय जयकार के साथ जनसमूह ने आचार्य श्री हीराचन्द्रजी म.सा. की जय, उपाध्याय श्री मानचन्द्रजी म.सा. की जय से आपके आदेश को अपनी | श्रद्धाभिभूत वाणी से दिग्-दिगन्त में व्याप्त कर दिया। इसके साथ ही माननीय सदस्यों ने सभा-विसर्जन के पूर्व अपनी एकरूपता का परिचय दे दिया। शरीर विनश्वर है, आत्मा अमर है। फूल बिखर जाता है पर उसकी सौरभ वातावरण को सुरभित कर जाती है। व्यक्ति चला जाता है, व्यक्तित्व अमर रहता है, कृतित्व युग-युग तक प्रेरणापुंज बना रहता है। वह पावन देह | भले ही अनन्त में विलीन हो गई, पर उनकी गुण-सौरभ श्रद्धालुओं के जीवन को सदैव सुरभित करती रहेगी,उनके
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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