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________________ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं ३१२ सन्देश सदैव आने वाली पीढ़ियों को साधना की राह दिखाते रहेंगे। पावन स्मृतियाँ सदैव सम्बल देती रहेंगी। वह युग-पुरुष मिट नहीं सकता, वह महापुरुष तो चतुर्विध संघ के पावन मनों में, साधक जीवन में सदा प्रकट होता रहेगा। वह महायोगी तो अपने जीवनादर्शों व अपनी प्रेरणाओं में सदा अजर है, अमर है, अमर रहेगा एवं समग्र मानव जाति को अपना पवित्र पावन मंगलमय शुभ सन्देश देता रहेगा। महान् अध्यात्म योगी, युगमनीषी, महासाधक के दिव्य लोक को महाप्रयाण के वृत्त जहाँ भी पहँचे, उन्हें श्रमण-श्रमणियों एवं सहस्रों श्रद्धालु भक्तों ने नत मस्तक हो भावपूर्ण श्रद्धाञ्जलि समर्पित की। देश-विदेश में गुण-स्मरण करने हेतु अनेक स्थानों पर सामूहिक सभाएं आयोजित हुईं। सैकडों श्रद्धालुओं के श्रद्धाञ्जलि पत्र जोधपुर स्थित अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ एवं जयपुर स्थित सम्यग्ज्ञान प्रचारक मण्डल के कार्यालयों में निरन्तर प्राप्त हो रहे थे। पूज्य श्रमण-श्रमणियों से भी निरन्तर श्रद्धाञ्जलि सन्देश मिल रहे थे। यहाँ पर श्रमण-श्रमणियों से प्राप्त कतिपय पत्रों के अंश प्रकाशित किये जा रहे हैं हे क्रूर काल । तूने यह निकृष्ट कार्य क्यों किया ? आज दिन तक तू कितने प्रभावक ज्योतिर्धर सन्त रत्नों को | ले गया? अभी तक तुझे सन्तोष नहीं हुआ ? मेरे परम स्नेही साथी आचार्य हस्तीमलजी म. को ले जाते हुए तेरे हाथ नहीं कांपे ? आज उनकी यहाँ पर कितनी आवश्यकता है ? आज चारों ओर भौतिकता की आँधी आ रही है, | ऐसी विकट वेला में एक अध्यात्मयोगी को हमारे से छीनकर ले गया। हे महासन्त ! तुमने संथारा कर सच्चे वीर की तरह मृत्यु का वरण किया है। धन्य है तुम्हारा जीवन और धन्य है | तुम्हारी मृत्यु।" -उपाध्याय श्री पुष्करमुनि जी म.सा., जैन स्थानक, गढ सिवाना ____ “विगत दो दिन पूर्व प्रात: ६ बजे एक दुःखद संवाद न चाहते हुये भी इन कर्ण कुहरों में पड़ा कि जन-जन के |आराध्य, वंदनीय श्रद्धा के केन्द्र बिन्दु, समाधिभाव में लीन, तपोमूर्ति, संयतात्मा, दिव्यात्मा, ज्ञान सिन्धु, जन-जन के बन्धु, रल संप्रदाय के जाज्वल्यमान रत्न, अध्यात्म गगन के दिव्य दिवाकर आचार्यप्रवर श्री हस्तीमलजी म.सा. महाप्रयाण कर गए हैं। यह दुःखद घटना श्रवण कर श्रद्धापूरित इस मानस सागर में अनेक प्रकार की तरंगें तरंगित होने लगी। पुण्यात्मा हँसते-हँसते सुरधाम सिधार गए शिष्य-शिष्यावृंद, भक्तगण, श्रद्धालुवृंद को पीड़ित कर। अब | पावन संयमनिधि देह दृष्ट्या हमारे समक्ष नहीं हैं किन्तु उनका निर्मल यश:काय युगों-युगों तक श्रद्धालुओं को मार्गदर्शन देता रहेगा। श्रद्धेय आचार्यप्रवर इस युग के महान् संत रत्न थे। उनकी गरिमा महिमा का वर्णन लेखनी द्वारा अभिव्यक्त | नहीं किया जा सकता है। उपमातीत व्यक्तित्व को किस उपमा से उपमित किया जाये। मेरे अन्तर मानस में रह-रहकर कवि की निम्न पंक्तियाँ उभर रही हैं मैंने अपनी इन आंखों से सच ऐसे इंसान को देखा है। जिसके बारे में सब कहते हैं, धरती पर भगवान को देखा है। सचमुच आचार्यप्रवर एकान्त ध्यानयोगी एवं मौन साधक थे। छल, छद्म एवं पद-लिप्सा से दूर रहकर हर क्षण अप्रमत्तभाव से आत्म-जागरण के साथ आपने सच्चा श्रमण-जीवन व्यतीत किया है। आप सामायिक, स्वाध्याय के प्रबल पक्षधर थे।
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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