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________________ - नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं २५६ शिक्षा का काम है। मुमुक्षु की आत्म-साधना हेतु भी ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। व्यवहार मार्ग में व्यक्ति के जीवन, समाज और राष्ट्र की समृद्धि के लिए भी ज्ञान पहला कदम है। इसीलिए शिक्षा कैसी हो, सुधार कैसे हो, आदि विचार महात्मा गांधी के युग से लेकर आज तक भी परिचर्चा के विषय हैं। विद्या या शिक्षा वरदान तब होती है जब उसकी वृद्धि के साथ नैतिक आचरण की समृद्धि बनी रहे, बुरी आदतें मिटें। गाँवों की अपेक्षा शहरों में शिक्षक अधिक हैं, किन्तु चोरी और हत्याओं का सिलसिला शहरों में अधिक क्यों है? जहाँ शिक्षक शहरों में ज्यादा हैं, वहाँ पर बुराइयाँ क्यों? शिक्षा-पद्धति से देश में शान्ति बढ़े, शिक्षकों का सम्मान बढ़े, ऐसी शिक्षा आवश्यक है।" नैतिक शिक्षा || के सम्बन्ध में आपने फरमाया – “आज जो लड़का सबसे ज्यादा अंक लाकर पास होता है उसका तो सम्मान होता । है, पर क्या कभी उस लड़के का भी सम्मान किया जाता है जो सत्यवादी है? जो पूर्ण नैतिक जीवन जी रहा है ? उस लड़के का सम्मान क्यों नहीं हुआ जो निर्व्यसनी है? सत्यवादी, निर्व्यसनी और अनुशासन में रहने वाले | छात्रों के सम्मान से अन्य छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होगी।" । ___“यदि शिक्षक समुदाय गली-गली, घर - घर जाकर व्यसनमुक्ति के लिए प्रयास करे तो बहुत बड़ा काम हो || सकता है।'. मैं सोचता हूँ शिक्षा पद्धति को ऐसा रूप दिया जाय जिससे बुराइयाँ घटे तथा शील, सदाचार, शान्ति, मैत्री एवं भाईचारा बढे। शिक्षा से सद्गुण बढ़ने चाहिए। अगर सद्गुण नहीं बढते तो समझना चाहिए कि शिक्षा-पद्धति में दोष है।" ___ “आज शिक्षण प्राप्त लोगों में स्वावलम्बन कम होता जा रहा है। श्रीमन्त गाड़ी में बैठता है, पर गाड़ी साफ नहीं करता, स्वावलम्बन की कमी के साथ ही हमारी सहनशक्ति भी कम हो गई है। विनम्रता भी कम हो गई है। आप शिक्षा का सुन्दर रूप देखना चाहते हैं, तो इन विकारों को निकालें।" “साक्षर व्यक्तियों की बुद्धि उलट जाय तो वे राक्षस बनते देर नहीं करते। शिक्षा से शान्ति, मैत्री एवं सौहार्द का भाव आना चाहिए।" विद्वत्गोष्ठी में भारत के विभिन्न प्रान्तों से आए विद्वानों ने 'अपरिग्रह एवं उपभोग परिभोग-परिमाण व्रत' विषयक निबंध और विचार प्रस्तुत किए। समागत विद्वानों को प्रेरणा देते हुए आचार्य भगवन्त ने फरमाया - "विद्वान् वह है जो ज्ञान को आचरण में उतारे। अनगिनत बालकों का जीवन-निर्माण करने वाले शिक्षक और विद्वान् का जीवन सरल, सादगीयुक्त, व्रत और मर्यादा के नियम से युक्त हो, तभी | समाज उससे लाभान्वित हो सकता है, अन्यथा नहीं।" आचार्य श्री के प्रेरणास्पद आह्वान पर उपस्थित |विद्वानों ने सामूहिक रूप से एक वर्ष के लिए उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत सम्बंधी नियम ग्रहण किए। विद्वानों द्वारा गृहीत प्रमुख नियम इस प्रकार हैं- (१) उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत के अन्तर्गत २६ बोलों में से २३ बोलों के पदार्थों का प्रतिदिन ५ से अधिक का उपयोग नहीं करना। वत्थविहि में वर्ष में ५ से अधिक पहनने योग्य नई ड्रेस नहीं बनवाना। सचित्तविहि में प्रतिदिन १५ से अधिक सचित्त वस्तुओं का उपयोग नहीं करना और दव्वविहि में प्रतिदिन ३० से अधिक द्रव्यों का प्रयोग नहीं करना, (२) आजीविका की दृष्टि से १५ कर्मादानों का | त्याग। इसमें भाडीकम्मे के अन्तर्गत ५ मकान तक आजीविका के लिए किराये देने का आगार रखा गया, (३) सप्त कुव्यसनों का त्याग, (४) चाय-दूध को छोड़कर रात्रि-भोजन का त्याग। इस व्रत में माह में चार दिन का आगार रखा गया। (५) १०१ हरी - लीलोती की मर्यादा की गई। माह में अष्टमी, चतुर्दशी अथवा किन्हीं चार दिन हरी-लीलोती का उपयोग नहीं करना (६) हिंसक चमडे का उपयोग नहीं करना। (७) विदेश से बिना अनुमति के कोई चीज नहीं
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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