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________________ प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड २५५ की तेज गर्मी में कष्ट की परवाह किए बिना किसान खेत की सम्भाल करते हैं। आने वाली वर्षा से पूर्व वे खेत साफ करते हैं। आपको भी चातुर्मास में धर्म की अच्छी खेती हो, इसके लिए तैयारी करनी है। कितने प्रतिक्रमण वाले, कितने स्वाध्यायी और कितने बारहव्रती तैयार करने हैं, आदि।” दूसरे दिन २४ मई को यहाँ से विहार कर करुणानिधि धनराज बछावत की फैक्ट्री, निमली, इन्द्रों की ढाणी, झीतडा, भेट्दा, लोलाव (वैष्णव मन्दिर में विराजे) होकर मौटुका पधारे। यहां करुणाकर से दया धर्म का महत्त्व समझ कर राजपूत युवाओं ने मांससेवन व बड़ी हिंसा का त्याग किया व सेशराम ने जीवन भर के लिए मद्यपान का त्याग कर अपने को व्यसनमुक्त बनाया। वहाँ से गोलगाँव होकर पूज्यपाद कंकरीली सड़क पर चलते हुए १ जून ८५ को पालासनी पधारे। यहाँ बाहर से कई भक्तों का आगमन हुआ। जयपुर से श्री सुमेरसिंह जी बोथरा के साथ उनकी पुत्री अन्नू अमेरिका जाने की भावना से आराध्य गुरुदेव के दर्शनार्थ आई, उसे आपने सप्त कुव्यसन का त्याग कराया। पालासनी से बिसलपुर, दांतीवाडा, कूड बुचकला, रीयां फरसते हुए पूज्यप्रवर पीपाड़ पधारे। यहाँ धर्म प्रभावना कर आप कोसाणा, साथिन, रतकूडिया में सामायिक-स्वाध्याय का नियम कराते हुए माली ढाणी, होकर नारसर पधारे । यहाँ श्री माणकचन्द जी लोढा ने सपत्नीक आजीवन शीलवत अंगीकार किया व रमण मुथा ने प्रतिमाह ५ सामायिक का नियम स्वीकार किया। यहाँ से भोपालगढ़ के जैनरत्न विद्यालय एवं कूडी ग्राम को पावन कर १ जुलाई ८५ को आचार्य श्री का भोपालगढ़ में नगर प्रवेश हुआ। . भोपालगढ चातुर्मास (संवत् २०४२) पूज्य आचार्य श्री रत्नचन्द्र जी म.सा. की क्रियोद्धार भूमि बडलू (भोपालगढ) रत्नवंश के महापुरुषों के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित अनुयायी श्रद्धालु श्रावकों का क्षेत्र है। परम पूज्य गुरुदेव की महती कृपा का आशीर्वाद इस क्षेत्र को सदैव मिला है। यहाँ के जैन जैनेतर सभी पूज्यपाद के प्रभावक व्यक्तित्व एवं पावन कृतित्व से प्रभावित एवं श्रद्धावनत हैं। २१ वर्ष बाद इस क्षेत्र को पूज्यपाद के वर्षावास का लाभ प्राप्त हुआ था। स्थानीय भक्तों के साथ ही प्रवासी भोपालगढ निवासियों के मन में आराध्य गुरुदेव के सान्निध्य में रह कर पावन दर्शन-वन्दन प्रवचन-श्रवण के साथ जीवन-निर्माण की भावनाएँ ज्वार की भांति हिलोरें ले रही थीं। पूज्यप्रवर आचार्य हस्ती का यह वर्षावास ज्ञान-दर्शन-चारित्र साधना से सम्पन्न रहा। चातुर्मास में अखण्ड जाप एवं सामूहिक दया पौषध के आयोजन हुए। चातुर्मास में १२ मासक्षपण तप सहित अनेक तप एवं संवर-साधना के आयोजन हुए। पं. रत्न श्री हीरामुनि जी (वर्तमान आचार्यप्रवर) ने अपने प्रवचनों के माध्यम से पांच करणीय कर्तव्यों का निरूपण किया - पारस्परिक प्रेम, गुणग्राहिता, परिग्रह का उचित वितरण, आत्मदोष-निरीक्षण एवं सेवा। यहाँ २५ सितम्बर को हुई शिक्षक संगोष्ठी के अवसर पर समुपस्थित शिक्षक जनों को आचार्य श्री का उद्बोधन, २० से २२ अक्टूबर को हुई विद्वत्गोष्ठी में 'अपरिग्रह एवं उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत' विषय पर प्रस्तुत विद्वानों के शोध-लेख तथा विद्वानों द्वारा कतिपय नियम ग्रहण, आचार्य श्री रत्नचन्द स्मृति व्याख्यान (पंचम) आदि से यह चातुर्मास भोपालगढ़ का ऐतिहासिक चातुर्मास बन गया। शिक्षक संगोष्ठी को सम्बोधित करते हुए ज्ञानसूर्य आचार्य श्री ने फरमाया-"जीवन का निर्माण ज्ञान और | क्रिया के समन्वय से होता है। जानना, समझना और विचारों में प्रबुद्ध संस्कारों को जागृत करना, यह
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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