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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं कौशल्याकुंवरजी आदि ठाणा ४, महासती श्री मैना सुन्दरी जी म.सा. ठाणा ४ ने भी दर्शन-वन्दन आदि की सेवा का लाभ लिया। प्रवचन से प्रभावित हो त्रिलोकजी कोठारी ने २५० शराब-त्यागी एवं २५० शाकाहारी बनाने की प्रतिज्ञा की। महावीरजी भण्डारी, चाँदमलजी बोथरा, राजमलजी पोरवाल आदि अनेक श्रावकों ने सजोड़े शीलव्रत अंगीकार किया।
अपने जीवन का निर्माण करने के प्रति आप सदैव सजग रहते थे। उसमें कभी विराम का अवकाश ही नहीं था। संयम जीवन के ५३ वर्ष व्यतीत हो जाने पर आपने एक दिन विचार किया-"परमात्मा का जो शुद्ध-बुद्ध वीतरागतामय स्वभाव है वही मेरा स्वभाव है। कर्मों के आवरण ने जो मेरे स्वभाव को ढक रखा है, दृढ संकल्प के साथ मुझे आवरण दूर कर अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त करना है। काम-क्रोध-लोभ-मोह मेरा स्वभाव नहीं है। मैं दृढता से निश्चय करता हूँ कि कैसी भी परिस्थिति हो, मुझे काम-क्रोध-लोभादि के अधीन नहीं होना है। जब भी प्रसंग आयेगा, मैं दृढता से विकारों का मुकाबला करूँगा।" गुरुदेव का यह संकल्प उनके जीवन का लक्ष्य बन गया। उस शुद्ध स्वर्णमय चारित्र में मणि का प्रकाश मिल गया। • सवाईमाधोपुर चातुर्मास (संवत् २०३१)
__कोटा से केशोराय पाटन, कापरेन, लबान, लाखेरी, इन्द्रगढ़, बाबई, बगावदा, पचाला,चौथ का बरवाड़ा, बिलोपा,बजरिया, आलनपुर होते हुए संवत् २०३१ के ५४ वें चातुर्मासार्थ आप सन्तमण्डल के साथ ठाणा ८ से आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी को सवाईमाधोपुर पधारे। बड़े महापुरुषों के चातुर्मास का सवाईमाधोपुर क्षेत्र में यह क्वचित् प्रथम संयोग था। संतों की सुविहित परम्परा के शुद्ध साध्वाचार की समाचारी से बहुत कम लोग परिचित थे, लोगों के धर्मध्यान के लिये अपेक्षित स्थान भी उपलब्ध नहीं था। सामान्यत: क्षेत्र की स्थिति साधारण थी। कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था कि लक्षाधिक भक्तों के पूज्य, जन-जन के आराध्य, देश के कोने कोने में जिनवाणी की पावन गंगा प्रवाहित करने वाले भगीरथ, सामायिक स्वाध्याय के संदेशवाहक ही नहीं वरन् पर्याय, ज्ञानक्रिया के उत्कृष्ट आराधक, प्रबल अतिशय के धनी, युगमनीषी युग प्रभावक आचार्य भगवन्त के चातुर्मास का लाभ छोटे से क्षेत्र सवाईमाधोपुर को मिल सकता है ? यहाँ के सीधे सरल सामान्य लोग भी मन ही मन सोचते रहते, व्यवस्था होगी, पूज्यपाद के दर्शनार्थ पधारने वाले सहस्रों श्रद्धालु भक्तों का स्वधर्मी वात्सल्य हम 'सुदामा के चावल' के माफिक किस प्रकार कर पायेंगे।
पूज्यपाद बस स्टेण्ड के पास बंसल भवन में विराजे । प्रवचन योग्य कोई स्थान नहीं था। भक्तगण ने बंसलभवन के बाहर ही पाट लगाकर प्रवचन की व्यवस्था की। चार माह तक का यह दृश्य सहज ही पूर्वाचार्यों द्वारा | दुकानों में किये गये वर्षावासों की स्मृति दिला देता था। इसीलिये तो स्थानकवासी परम्परा के महापुरुषों को ‘दूंढिया' संबोधन से संबोधित किया गया है।
महापुरुषों की कृपा जिस पर हो जाय, उसका भाग्योदय होना सहज स्वाभाविक है। भला 'पारस' का स्पर्श कर लोहा 'स्वर्ण' बनने से कब रुका है। महापुरुषों की चरण रज जिस धरती पर पड़ जाय वह क्षेत्र साक्षात् प्रत्यक्ष तीर्थधाम हो जाता है। कहना न होगा, पूज्यप्रवर के इस चातुर्मास ने सवाईमाधोपुर क्षेत्र का कायाकल्प कर दिया। जिस क्षेत्र में कम ही लोग सामायिक करने वाले मिलते, वहां सैकड़ों स्वाध्यायी तैयार हो गये, जो आज भी भारत के कोने-कोने में पर्युषण के अवसर पर अपनी सेवाएं प्रदान कर 'गुरु हस्ती' के संदेश स्वाध्याय व सामायिक का उद्घोष करते हुए जिनशासन की महती प्रभावना कर रहे हैं। आज सवाईमाधोपुर क्षेत्र आर्यभूमि भारत के धार्मिक