SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (प्रथम खण्ड : जीवनी खण्ड १८१ नक्शे में प्रमुख क्षेत्र के रूप में अंकित है। इस चातुर्मास के कारण सवाईमाधोपुर क्षेत्र के बन्धु बाहर के भक्तों के परिचय व सम्पर्क में भी आये। आज | यह क्षेत्र आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक प्रतिष्ठा व धर्माराधन सभी क्षेत्रो में आगे बढ़ा है। आचार्य श्री का सवाईमाधोपुर चातुर्मास पोरवाल क्षेत्र के लिए वरदान सिद्ध हुआ। यहाँ पर २ स्वाध्यायी शिविर लगे, ५१ स्वाध्यायी बने, लगभग २० दम्पतियों ने आजीवन शीलवत अंगीकार किया तथा अनेक बारह व्रती बने । पचासों व्यक्तियों ने एक वर्ष का शीलव्रत स्वीकार कर अपने जीवन को संयम की ओर मोड़ा। इस चातुर्मास से इस क्षेत्र में न केवल धार्मिक जागृति आई , अपितु सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी सुधार हुआ। अनेक अजैन बन्धुओं ने भी चातुर्मास का लाभ उठाया। निकटवर्ती ग्राम-नगरों एवं पल्लीवाल क्षेत्र के बन्धु भी लाभान्वित हुए। इस पंचमासी वर्षावास में आचार्यश्री ने साम्वत्सरिक पर्व को सभी जैन सम्प्रदायों द्वारा एक दिन मनाये जाने हेतु अपनी भावना अभिव्यक्त की तथा समाज में एकता की दृष्टि से उत्सर्ग करने का आह्वान भी किया। जयन्ती भाई, हिम्मत भाई, आनन्दराज जी, वृद्धिचन्दजी आदि के नेतृत्व में बम्बई से एक शिष्टमण्डल भी उपस्थित हुआ जो ज्ञान क्रिया के समन्वय इन महायोगी के पावन दर्शन व शासन हितकारी विचारों से प्रभावित हुआ। आचार्यप्रवर के सान्निध्य में प्रथम भाद्रपद में सम्वत्सरी पर्व मनाया गया तथा दूसरे भाद्रपद में साधना- सप्ताह मनाया गया। इसी चातुर्मास में देशभर में भ. महावीर का २५०० वां निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा था। (जिसकी उपलब्धियों का संकेत पहले संवत् २०३० के जयपुर चातुर्मास के विवरण के साथ में किया गया है।) आचार्यप्रवर ने इस अवसर पर साध्वीप्रमुखा श्री सुन्दरकंवर जी म.सा. को प्रवर्तिनी पद प्रदान किया तथा महासती श्री जसकंवरजी म.सा. को शासन प्रभाविका के पद से अलंकृत किया। वीर निर्वाण दिवस पर प्रववन में आपने फरमाया कि वर्तमान में भगवान महावीर के उपदेशों को अपनाने की महती आवश्यकता है। अपरिग्रह पर विचार प्रकट करते हुए आपने उद्बोधन दिया -"पशु वनों में मुक्त मन से मिलकर खाते-पीते हैं, अधिकार नहीं जताते, वैसे ही मानव बिना अधिकार एवं ममता के रहे तो कोई दुःख नहीं हो।" आचार्य श्री को अपने नाम, प्रशंसा आदि से दूर रहना ही प्रिय था। आपके कितने ही लेख जिनवाणी में पूर्व में 'बटुक' के नाम से प्रकाशित होते रहे। इस चातुर्मास का यह भी एक क्रान्तिकारी कदम ही कहा जाएगा, जब आपने यह घोषणा की कि भविष्य में आपके नाम के पूर्व १००८ नहीं लगाया जाए। तीर्थङ्करों में १००८ गुण होने के कारण उनके पूर्व ही यह संख्या लगाना उचित है। आपने ने फरमाया कि साधु तो षट्काय प्रतिपालक होता है। | इससे बढ़कर उसके लिए और क्या विशेषण हो सकता है ? कोई नहीं। चातुर्मासकाल में राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश श्री भगवती प्रसादजी बेरी, भरतपुर के सेशन जज श्री जसराज जी चौपड़ा, राज्य के शिक्षामन्त्री श्री फारुख हुसैन आदि ने आचार्य श्री के दर्शन कर प्रमोद का अनुभव किया। यादव जी, दरडाजी एवं मुंसिफ जज ने सप्त व्यसनों का त्याग किया। ज्ञानाराधन, तप-आराधन आदि के साथ गुरुदेव का लेखन कार्य भी प्रगति पथ पर चलता रहा। बहनों ने भारी मूल्य के कपड़े एवं जेवर पहनकर व्याख्यान में आने का त्याग किया। धर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन करते हुए आपने फरमाया – “धर्म केवल स्थानक की वस्तु नहीं, वह जीवन-व्यवहार के हर क्षेत्र से जुड़ा हुआ होना चाहिए। धर्म को जीवन की प्रयोगशाला में लाना चाहिए। जिस प्रकार रक्त सारे शरीर में व्याप्त न रहे, केवल किसी एक अंग - हाथ, पैर या
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy