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________________ १६४ नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं धनारी पधारे। साधना एवं शील के साकार स्वरूप आचार्य भगवन्त जिन क्षेत्रो में पधारते, वहाँ सामायिक स्वाध्याय के संदेश गंजने लगते । ब्रह्मचर्य भी आपकी प्रमुख प्रेरणा थी। बचपन से वैरागी अखंड बालब्रह्मचारी इन महापुरुष के ब्रह्मचर्य दीप्त मुख मडल को निहार कर भक्त निहाल हो जाते, नयन कभी तृप्त ही नहीं होते, तो दूसरी ओर आपका पावन सान्निध्य भक्तजनों को सहज ही शील आराधन की प्रेरणा देता। इस विहारक्रम में आपने बराबर इस बात पर बल दिया कि शीलव्रत के पालन से आरोग्य, बुद्धिबल व सहनशीलता बढ़ती है। शील पालन के लिये उत्तेजक आहार एवं विषय विकारों को प्रोत्साहित करने वाले निमित्तों से बचना आवश्यक है, तो नयनों की चपलता से बचना भी आवश्यक है। साधक के मन में माताओं बहिनों के लिये मातृभाव व भगिनी भाव हो तो भोग की ओर आकर्षण ही नहीं होगा। आपके साधनानिष्ठ जीवन, ब्रह्मचर्य-दीप्त तेजोपुञ्ज मुखमंडल के दर्शन, पीयूष पाविनी वाणी व प्रेरणा से इन छोटे-छोटे क्षेत्रों में भी लोग शीलव्रत ग्रहण हेतु सहज प्रेरित हुए और २३ दम्पतियों ने शीलव्रत अंगीकार कर आपके चरणारविन्दों में सच्ची भेंट प्रदान की। __आपकी प्रेरणा से बावड़ी में धार्मिक पाठशाला प्रारम्भ हुई। यहां से विहार कर चरितनायक वीराणी, हीरादेसर, भोपालगढ़, अरटिया, दईकड़ा, थबूकड़ा, सूरपुरा होते हुए पौष शुक्ला ११ को जोधपुर के उपनगर महामंदिर पधारे। घोड़ों के चौक स्थानक में आपश्री की जन्मतिथि त्याग-तप से मनायी गई। १९ फरवरी १९७० माघशुक्ला १३ संवत् २०२६ को वैरागी शीतलराज जी (पुत्र श्री मदनराजजी सिंघवी) की | सादगीपूर्ण वातावरण में दीक्षा सम्पन्न हुई। इस प्रसंग पर १५ भाई-बहिन आजीवन ब्रह्मचारी बने । दीक्षा के एक दिन पूर्व पूज्य आचार्य प्रवर ने फरमाया था – “दीक्षार्थी एवं साधना का सत्कार बाहरी आडम्बर से नहीं, साधना से करो। दीक्षार्थी जीवनपर्यन्त पूर्ण ब्रह्मचर्य अंगीकार करता है। आप सब भी अब्रह्म त्याग की मर्यादा करें तथा जो भुक्तभोगी हो चुके, उन्हें तो पूर्ण खंध कर लेना चाहिये।" • अजमेर होकर जयपुर यहाँ से पालासनी, बिलाड़ा, जैतारण, निमाज, बर, कोटड़ा, ब्यावर क्षेत्रों में ज्ञान-वर्षा करते हुए एवं कन्हैयालाल जी छाजेड़ बक्सीराम जी राजपूत, सेठ भंवरलाल जी निमाज वाले, भंवरलाल जी पदावत खरवा वाले आदि कई भव्यों को ब्रह्मचारी बनाते हुए आप चैत्र शुक्ला एकादशी को अजमेर पधारे। आपके सान्निध्य में महावीर जयन्ती को विदुषी महासती श्री जसकंवर जी म.सा. की निश्रा में विरक्ता बहिन मीना कुमारी मेहता की दीक्षा सम्पन्न हुई। | फिर अजमेर से आप किशनगढ़ होते हुए जयपुर पधारे जहाँ अक्षय तृतीया पर १८ पारणक हुए। आचार्य श्री ने यहाँ भगवान आदिनाथ के तप एवं लोकधर्म शिक्षण पर प्रकाश डाला तथा फरमाया कि तप लोकसुख की कामना से करने पर आत्म-कल्याणक नहीं बनता। तप का एक मात्र उद्देश्य कर्म-निर्जरा होना चाहिये। • स्वाध्याय शिक्षण शिविर २० से २८ मई १९७० तक सम्यग्ज्ञान प्रचारक मंडल के तत्त्वावधान में जयपुर में स्वाध्यायी शिक्षण शिविर का आयोजन किया गया, जिसमें सवाईमाधोपुर क्षेत्र के ३० अध्यापकों सहित ८९ शिविरार्थियों ने भाग लिया। आचार्यप्रवर ने शिविरकाल में प्रातःकाल व्याख्यान के समय श्रावक के १२ व्रतों का सुन्दर प्रभावकारी विवेचन किया, अपराह्न काल में जैन दर्शन के मूल तत्त्वों का बड़ी बारीकी के साथ सरल सुबोध शैली में विश्लेषण किया तथा रात्रि में शिविरार्थियों के प्रश्नों का समाधान किया। इस अवसर पर ४० नये स्वाध्यायी बने । यह अपने आपमें
SR No.032385
Book TitleNamo Purisavaragandh Hatthinam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain and Others
PublisherAkhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
Publication Year2003
Total Pages960
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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