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________________ इस महान सर्जक ने कभी आर्थिक विपन्नता का रोना नहीं रोया। अरे, 350 पुस्तकों के लेखक पिता जयभिक्खु ने संपत्ति छोडी थी सिर्फ 350/- नकद । पर नीडर युवक ने माँ के आशीर्वाद से पिता के लेखन की अक्षुण्णता को आगे बढाया। पिता द्वारा ‘गुजरात समाचार' में लिखा जाता रहा स्तंभ ‘ईंट और इमारत' को यथावत् गौरव प्रदान कर चालू रखा। आज ‘गुजरात समाचार' में (जिसकी 10 लाख प्रतियाँ प्रकाशित होती हैं ।) प्रतिदिन कॉलम लिखने का गौरव आपको है। डॉ. कुमारपाल की सिद्धियों का आलेखन करना कठिन सा लगता है । मैं तो आपको उनके सागरीय व्यक्तित्व की मात्र चन्द बिंदुओं में झलक ही दे पा रहा हूँ। डॉ. कुमारपाल को उनकी इन प्रवृत्तियों पर लगभग 15 साहित्य पुरस्कार, एवं 33 अन्य एवार्ड प्राप्त हो चुके हैं जिनमें भगवान महावीर 2600वें जन्मोत्सव पर 'जैनरत्न' एवं 2004 के गणतंत्र दिवस पर 'पद्मश्री' का गौरवपूर्ण सन्मान प्राप्त होना प्रमुख है। सभी 48 पुरस्कारों के नाम लिखने की जगह कहाँ ? आज गुजरात युनिवर्सिटी के गुजराती विभाग के अध्यक्ष व डीन कला संकाय के रूप में सेवारत है। देखा आपने ! आपको लगेगा कि यह आदमी काम करते थक जाता होगा..... टेन्शन में रहता होगा.... वगैरह..... वगैरह; पर ऐसा नहीं। उन्हीं के शब्दो में कहूँ तो – नींद पूरी लेता हूँ, जागरण कभी नहीं करता। हाँ । दिन उगने पर कार्य नियमित अनवरत गति से करता हूँ। उनसे पूछा कि – 'यदि पुनर्जन्म लेना पड़ा तो क्या बनना पसंद करोंगे ?' तो उत्तर था - 'यदि पुनर्जन्म हुआ तो चाहूँगा कि समाजोपयोगी मूल्यनिष्ठ साहित्य का सृजन कर सकूँ, आध्यात्मिक जीवन जी सकूँ, ग्रंथों के रहस्य का चिंतन कर सकूँ एवं धर्म की वास्तविक विभावना को प्रसारित कर सकूँ।' ऐसे प्रतिभा के धनी डॉ. कुमारपाल मेरे पिछले 30 वर्षों से मित्र रहे हैं। उनका मेरा परिचय तो तब से हैं जब से उनका विवाह मेरे साथी अध्यापक श्री प्राणलालभाई की पुत्री से सम्पन्न हुआ। कुमारपाल के स्तंभ नित्य पढता था, उनके प्रवचन भी सुने थे... धीरे धीरे परिचय हुआ और यह परिचय मैत्री में बदलता गया - दृढ होता गया। चूँकि मैं भी थोडा बहुत लिखने-पढ़ने वाला व्यक्ति हूँ अतः यह मैत्री और भी दृढ़ होती गई। ___ 1974 में उन्होंने अहमदाबाद की पर्युषण व्याख्यानमाला में मुझे आमंत्रित कराया - मेरा प्रवचन सुना और अपनी प्रसन्नता व्यक्त की । बस फिर यह सिलसिला आज तक चल रहा है। उनकी सद्भावना व सहयोग से मुझे 1989 से यूरोप, अमरीका, पूर्व आफ्रिका की प्रवचन यात्रायें करने का मौका मिलता रहा है और इन सबमें उनका प्रत्यक्ष – परोक्ष सहयोग निरंतर रहा है। उनका यह एक गुण है कि यदि कोई विद्वान है और उसका गुण प्रसारित हो तो वे सदैव सहायक बनते हैं। कभी भी उनके मन में ऐसा भाव नहीं आया कि यह आगे क्यों बढ रहा है। वे सदैव तेजद्वेष से मुक्त रहे यही उनकी वात्सलता व मैत्री का एक महान गुण मुझे प्रेरित करता रहा। 324 मेरे हमदम मेरे दोस्त
SR No.032363
Book TitleShabda Ane Shrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPravin Darji, Balwant Jani
PublisherVidyavikas Trust
Publication Year2004
Total Pages586
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size16 MB
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