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(८०) का परिचय कराया, तब दयालु ऋषभदेव भगवान ने देव दिव्य आहार से सबकी पीड़ा दूर की। पश्चात् आजीविका-निर्वाह के सर्व उपाय तथा धर्म, अर्थ और काम का उपदेश दिया।
उपर्युक्त भिन्नता होते हुए भी भूल में सभी सिद्धान्त समान हैं। सभी में राजा की उत्पत्ति से पूर्व की दशा का वर्णन एक जैसा है तथा सभी सिद्धान्तों में नाभि कुलकर की आज्ञा से प्रजा ने ऋषभ स्वामी को अपना राजा स्वीकार किया तथा इन्द्र द्वारा राज्याभिषेक का वर्णन किया गया है। ___इस प्रकार जैन पौराणिक ग्रन्थों के अनुसार ऋषभदेव प्रथम राजा हए हैं। जैन मान्यतानुसार राजा की उत्पत्ति के सिद्धान्त को हम सामाजिक अनुबन्ध के सिद्धान्त की कोटि में रख सकते हैं। क्योंकि जैन ग्रन्थों में भी राजा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में युगलिक जन, ऋषभ स्वामी तथा नाभि कलकर के मध्य एक प्रकार से समझौता ही होता है जिसके फलस्वरूप नाभि कुलकर की आज्ञा से ऋषभदेव को राजपद पर आरूढ़ किया जाता है।
महाभारत और दीघनिकाय में राजा की उत्पत्ति तथा जैन पुराणों में राजा की उत्पत्ति में कुछ भिन्नता है वह यह है कि महाभारत और दीधनिकाय में राजा की सेवाओं के बदले प्रजा कर की व्यवस्था करती है, जैन ग्रंथों में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। जैन मान्यतानुसार राजा अक्सर कुछ समय राज्य करने के पश्चात् अंत में श्रमण दीक्षा अंगीकार कर लेते थे। ३. देवी उत्पत्ति का सिद्धान्त :
राजा की उत्पत्ति का तीसरा सिद्धान्त है । इस सिद्धान्त के अनुसार राजा की उत्पत्ति देवी (ईश्वर) रूप बतलायी गई है। यह सिद्धान्त हमको महाभारत, धर्म-शास्त्र एवं हिन्दू पुराणों में मिलता है। महाभारत में देव और नरदेव (राजा) दोनों समान ही हैं ।' कहीं पर ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि "राजा को देवताओं द्वारा स्थापित हुआ मानकर कोई
१. महाभारत शान्तिपर्व ५९/१४४