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इसी प्रकार ऋषभदेव ने तीन वर्षों की स्थापना भी की थी। जो शास्त्र धारण कर आजीविका करते थे, उन्हें ऋषभदेव स्वामी ने "क्षत्रिय वर्ण" की संज्ञा दी । जो खेती, व्यापार और पशुपालन द्वारा आजीविका करते थे उन्हें "वैश्य" की संज्ञा दी और जो उनकी सेवा करते थे उन्हें "शूद्र वर्ण" की संज्ञा दी।
इस प्रकार युग के कर्ता भगवान ऋषभदेव ने कर्मयुग का आरम्भ किया । इसलिए पुराण्कारों ने उनका कृतयुग नाम दिया है । ऋषभदेव कृतयुग का प्रारम्भ करके प्रजापति कहलाने लगे थे ।
जब छह कर्मों की व्यवस्था से प्रजा कुशलतापूर्वक रहने लगी तब इन्द्र सहित देवों ने आकर ऋषभस्वामी का सम्राट पद पर अभिषेक किया और राजायोग्य अलंकारों से विभूषित किया । नगर-निवासी लोगों ने भी कमल के बने हुए दोने से और किसी ने मिट्टी के घड़े में सरयू नदी का जल लेकर भगवान के चरणों का अभिषेक किया। ..
कर्म-भूमि की रचना करने बाले भगवान ऋषभदेव ने राज्य पाकर महाराज नाभिराज के समीप ही प्रजा के पालन करने के लिए प्रजा के विभाग आदि करके उसकी आजीविका के नियम बनाये, जिससे प्रजा अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन न कर सके। इस प्रकार ऋषभ स्वामी प्रजा पर शासन करने लगे।
हरिवंश पुराण के अनुसार भी सृष्टि की रचना तथा राजा की उत्पत्ति से पूर्व की दशा जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, आवश्यकचूर्णी और महापुराण के समान ही है। राजा की उत्पत्ति के विषय में यहाँ यह कहा गया है कि जब बहुत भारी व्यथा से पीड़ित समस्त प्रजा नाभिराज के सम्मुख पहुंची और फिर वहाँ से प्रेरित हो भगवान ऋषभदेव के पास पहुंची और मस्तक झुकाकर कहने लगी कि हे देव- कल्पवृक्ष नष्ट हो गये हैं जो कि हमारी आजीविका के साधन थे। इसके पश्चात् इक्षुरस साधन हुए लेकिन वह भी अब रसविहीन हो गये हैं। अब फलों के भार से झुके हुए नाना
१. वही १६/१८४-८५ पृ० ३६२. २. महा पु० १६/१२५ पृ० ३६६. ३. वही १०/२४१-२४२ पृ० ३६८.