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आशीर्वचन “सानोति स्व-पर कार्यमिति साधु"-"स्वान्तसुखाय-परजन हिताय' इसी अर्थ को लेकर साधु शब्द की व्युत्पत्ति हुई है। ज्ञानोपासना स्वोत्थान और परोपकार के लिए आवश्यक है। इसी लक्ष्य को केन्द्रित करते हुए साध्वी मधुस्मिता श्री जी ने स्वयं के लिए एवं जनमानस को
आत्मोन्मुख बनाने के लिए "भारतीय राजनीतिः जैन पुराण साहित्य संदर्भ' विषय पर PH. D. की है।
जैन दर्शन का प्रमुख आधार कर्म सिद्धान्त पर अवलम्बित है । 'यः कर्ता स एवं भोक्ता' इस उक्ति के अनुसार यद्यपि जो जैसा करता है वह वैसा ही फल पाता है। फिर भी समाज की अराजकता, भ्रष्टाचार, अन्याय से सुरक्षा का विधान राजनीति करती है। नैतिकता ही सदाचार की नींव है । अतीत के अनुभव का प्रकाश ही भविष्य का मार्गदर्शन करती है । जैन पुराणों में प्राचीन दण्डनीति का विधान तो है ही, साथ ही साथ समय-समय पर भिन्न-भिन्न नीतियों का भी उल्लेख किया गया है। साध्वी जी ने इसी तथ्य को सत्य करने का प्रयास किया है। . विषय का तलस्पर्शी एवं सूक्ष्म ज्ञानार्जन के लिए लक्ष्य का निर्धारण आवश्यक है। इसी हेतु से साध्वी जी ने पी० एच० डी० करने का निर्णय लिया। अध्ययनशील रहने में कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है, इसमें भी श्रमण जीवन तो संघर्ष से परिपूर्ण होता है। इसके बावजूद भी अथक परिश्रम करके इन्होंने साहित्य सेवा की है।
- मधुस्मिता श्री जी नैतिकता का पाठ पढ़ाकर, साहित्य सृजन के माध्यम से समाज का एवं स्वयं अपना उत्थान करें, यही मेरी हार्दिक शुभकामना तथा आन्तरिक आशीर्वाद है। १३-११-८६ कार्तिक पूर्णिमा देहली
गुरु विचक्षण पद हेतु मनोहर श्री मुक्ति प्रभा श्री