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________________ (४१) इसी प्रकार उत्सर्पिणी काल के क्रमिक विकास को भी छः भागों में विभक्त कर अवसर्पिणी काल के प्रतिलोम क्रम से (१) दुषमा-दुषम, (२) दुषमा, (३) दुषमा-सुषम, (४) सुषमा-दुषम (५) सुषमा (६) सुषमा-सुषम नाम से समझना चाहिए । इन आरों का समय भी उपर्युक्त भागों के अनुसार है। अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी दोनों कालों को मिलाकर बीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम का एक काल चक्र होता है । अपकर्षोन्मुख अवसर्पिणी काल के तीसरे आरे (सुषमा-दुषम) में पल्योपम का आठवाँ भाग अवशेष रहने पर “युगलियों” के रूप में कुलकरों की उत्पत्ति हुई । युगलियों अर्थात् एक लड़का और एक लड़की का साथ उत्पन्न होना । (लग्न संस्था उस समय बनी नहीं थी। लड़का और लड़की अन्य युगल को जन्म देकर मृत्यु को प्राप्त हो जाते थे।) कुलकर व्यवस्था से पूर्व सामाजिक संगठन नहीं हुआ था। युगलिक व्यवस्था चल रही थी, उस समय न कुल था, न वर्ग और न जाति, समाज की बात तो बहुत दूर रही। जनसंख्या बहुत कम थी । माता-पिता की मौत के दो या तीन माह पहले एक युगल जन्म लेता था, वही दम्पति कहलाता था। विवाह संस्था का उदय नहीं हुआ था । जीवन की आवश्यकताएं सीमित थीं। उस समय न खेती थी, न कपड़ा बनता था. न मकान की आवश्यकता थी, उनके भोजन, वस्त्र और मकान की पूर्ति कल्पवक्षों के द्वारा होती थी। उस समय मानव स्वभाव से शांत, शरीर से स्वस्थ एवं स्वतंत्र जीवन जीने वाला होता था। धर्म करने की कोई आवश्यकता नहीं थी, उनमें भौतिक मर्यादाओं का अभाव था, केवल सहज स्वभाव से व्यवहार करते थे। वे किसी नर से या पशु सेन सेवासहयोग प्राप्त करते और न किसी को अपना सेवा-सहयोग अर्पित करते । दस प्रकार के कल्पवृक्षों'. द्वारा सहज प्राप्त फल-फूलों आदि से वह अपना जीवन-यापन करते थे। उनका जीवन रोग-शोक, वियोग रहित था। उस समय न कोई स्वामी था न कोई सेवक, शासक और शासित १. तित्थोगाली पइण्णय पृ० १५.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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