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(४०) है। इस काल चक्र के बारह आरौं (काल-विभागों) का जैनों द्वारा निर्देश किया गया है।
ढाई द्वीप'. के पाँच भरत और पाँच ऐरावत क्षेत्रों में समय की व्यवस्था करने के कारण रूप बारह आरों का एक काल-चक्र गिना जाता है। उसके दो कल्प होते हैं। (१) अवसर्पिणी काल और (२) दूसरा उत्सर्पिणी काल। यह दोनों क्रमशः बदलते रहते हैं। शेष सभी क्षेत्रों में काल अपरिवर्तनीय रूप से सदा समान रहता है।
अपसर्पिणी काल का अपकर्ष निम्नलिखित छ: भागों में विभक्त है। (१) सुषमा-सुषम-(यह चार कोटाकोटि वर्ष प्रमाण वाला प्रथम
आरा है।) (२) सुषमा -(यह तीन कोटाकोटि सागरोपम वाला
होता है । ) (३) सुषमा-दुषम-(यह दो कोटाकोटि सागरोपम वाला है। ) (४) दुषमा-सुषम-(यह बयालीस वर्ष न्यून एक कोटा-कोटि
सागरोपम प्रमाण वाला आरा है।) (५) दुषम -(यह इक्कीस हजार वर्ष वाला होता है ।) (६) दुषमा दुषम-(यह इक्कीस हजार वर्ष वाला आरा होता
१. ढाई द्वीप :-न मान्यतानुसार एक लाख योजन जम्बूद्वीप होता है उसके
चारों तरफ चार लाख लवण समुद्र, लवण समुद्रके चारों तरफ आठ लाख धातकी खण्ड, धातकी खण्ड के चारों तरफ सोलह लाख योजन प्रमाण कालोदधि समुद्र और उसके चारों तरफ सोलह लाख योजन अर्द्ध पुष्कखरद्वीप होता है। इस प्रकार कुल मिलाकर पैंतालीस लाख योजन प्रमाण ढाई द्वीप होता है । इस द्वीप
के अन्दर मनुष्यों की बस्ती होती हैं। नोट -विशेष जानकारी के लिए देखिए-नवीन ऋषि जी महाराज: जैन दष्टि
में मध्यलोक, बम्बई, मनसुखभाई देसाई पृ०२. २. तित्थोगालीपद्दण्णय : पन्यास कल्याण विजय, जालोर : श्वेताम्बर (चारधुई)
जैनसंघ १६७५, पृ० ३. ३. नोट-आरों के विषय में देखिए जम्बूद्वी प्रज्ञप्ति : राय धनपतसिंह, वाराणायां,
जैन प्रभाकर यन्त्रालये, वक्षस्कार २.