SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीय अध्याय "जैन पुराण साहित्य में राजनीति" जैन पुराण साहित्य मूल रूप में शुद्ध राजनीतिक ग्रंथ नहीं है लेकिन फिर भी हम उसको राजनीति की कोटि में रख सकते हैं। जब हम प्राचीन आगम तथा पुराणों का अवलोकन करते हैं तो हमारे सम्मुख अनेक ऐसे आदर्श उपस्थित होते हैं जिनके आधार पर हम जैन मान्यतानुसार राजनीति का उद्भव कब और किस प्रकार हुआ तथा इससे पूर्व की क्या अवस्था थी आदि के बारे में जानकारी प्राप्त होती है । इस अध्याय में हम जैन साहित्य में निहित राजनीतिक तत्त्वों का संक्षिप्त में विवेचन करेंगे । जैन राजनीतिक विचारकों की श्रेणी में 'जिनदासगणि महत्तर' 'रविषेण', "जिनसेन प्रथम", "जिनसेन द्वितीय”, “गुणभद्र”, “जटा सिंहनंदि", "धनंजय”, “वादिमसिंह”, “वीरनंदि", "असंग", "हेमचन्द्राचार्य", तथा “सोमदेव सूरि” का नाम उल्लेखनीय है। ___ जैन शास्त्रों तथा आगमों के अनुसार संसार अनादि अनंत है, अर्थात् न कभी इसका आदि है और न कभी अन्त । अनादि काल से ही सतत् गतिशील चलता आ रहा है । यह दृष्टिगोचर जगत परिवर्तनशील परिणामी नित्य है । मूल द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की दृष्टि से परिवर्तनशील है। प्रत्येक जड़ चेतन का परिवर्तन नैसर्गिक ध्रुव एवं सहज स्वभाव है। जिस प्रकार दिन के पश्चात् रात्रि और रात्रि के पश्चात् दिन, प्रकाश के पश्चात् अंधकार, अंधकार के पश्चात् प्रकाश का प्रादुर्भाव होता है । जनवरी, फरवरी, मार्च, अप्रैल आदि बारह महीनों का एक के बाद दूसरे का आगमन, गमन, प्रतिगमन का यह चक्र अनादि काल से निरंतर चलता आ रहा है । उत्थान के बाद पतन, पतन के बाद उत्थान, . इस प्रकार चराचर जगत का अनादिकाल से अनवरत क्रम चला आ रहा
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy