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(२६) ममता, विभुषणा, लेख , गणित, रूप, लक्षण, मानदण्ड, प्रातेनपोत, व्यवहार, नीति, युद्ध, इषुशास्त्र, उपासना, चिकित्सा, अर्थ-शास्त्र, बंध, घात, ताड़न, यक्ष, उत्सव, समवाय, मंगल, कौतुक, वस्त्र, गंध, माल्य, अलंकार, चूला, उपनयन, विवाह पद्धति, मृतपूजना, ध्यापना, स्तूप, शब्द, खेलापन, पृच्छना, इन चालीस विषयों की ओर संकेत किया गया है। इनके निर्माता एवं प्रवर्तक के रूप में ऋषभदेव का ही नाम आता
ऋषभदेव का वर्णन करते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि “बाहुबलि ने भगवान ऋषभदेव की स्मृति में धर्मचक्र की स्थापना की। जिस दिन ऋषभदेव को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई उसी दिन भरत की आयुधशाला में चक्ररत्न की प्राप्ति हुई थी। भरत को यह दोनों ही समाचार एक साथ प्राप्त हुये। भरत मन में विचार करने लगे कि पहले कहाँ जाना चाहिए। अंत में पिता की उपकारिता को दृष्टि में रखते हुए पहले वे भगवान ऋषभदेव के पास आये और उनकी पूजा की। इस अवसर पर उनके माता, पुत्र, पुत्री, पौत्रादि सभी दर्शनार्थ पहुंचे।
नियुक्ति में ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत की दिग्विजय का विस्तार से वर्णन किया गया है। भरत ने अपने छोटे भाइयों को भी अधीनता स्वीकार करने को कहा । लेकिन उन्होंने भगवान ऋषभदेव के पास जाकर अपनी यह समस्या रखी। भगवान ने उन्हें उपदेश दिया जिसे सुनकर बाहुबलि के अलावा सभी भाइयों ने भगवान के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। बाहबलि ने भरत को युद्ध के लिए आह्वान किया। सेना की सहायता न लेते हए दोनों ने अकेले ही आपस में लड़ना स्वीकार किया । अंत में बाहबलि की विजय हुई । लेकिन बाहुबलि को उस अधर्म-युद्ध से वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने भी दीक्षा ले ली।
१. मोहनदास मेहता सम्पा० दलसुखभाई मालबणिया, तथा डा० मोहनलाल मेहता :
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, बाराणसी : पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान १९६७; पृ० ७७. २. वही पृ० ७८. ३. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ३, पृ० ७८.