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________________ ( १९५ ) बात को स्वीकार किया गया है । मनु ने कहा है कि प्रथम तीन उपायों द्वारा यदि शत्रु नहीं रोका जा सकता है तो फिर उसे " दण्ड " द्वारा ही परास्त करना चाहिए। सभी विचारकों ने महत्वाकांक्षी राजाओं को यथासम्भव युद्ध से दूर रहने और शान्तिमय उपायों से ही कार्य सिद्ध करने के प्रयास का उपदेश दिया है। आचार्य सोमदेव ने भी इसी बात की पुष्टि की है । उन्होंने कहा है कि जब विजिगीषु अर्थात् साम आदि उपायों के प्रयोग द्वारा शत्रु पर विजयश्री प्राप्त करने में असमर्थ हो जाये तभी उसे युद्ध करना चाहिए। जैन मान्यतानुसार भी प्राचीन समय में सभी उपाय निष्फल हो जाने पर ही युद्ध छेड़ा जाता था । जैसा कि भरत बाहुबलि युद्ध से स्पष्ट होता है कि भरत राजा सर्वप्रथम बाहुबलि के पास दूत द्वारा समाचार भेजते हैं कि वह मेरी अधीनता स्वीकार कर ले। दूत बाहुबलि के समक्ष पहुँच कर भरत राजा का संदेश कहता है यहां तक कि वह कितनी बार क्रोधित होकर भी बाहुबलि के सामने पेश होता है । लेकिन फिर भी बाहुबलि भरत के आदेश को मानने के लिए तैयार नहीं हुये । इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों में युद्ध प्रारम्भ हुआ था। इस उदाहरण से पता चलता है कि सभी उपाय निष्फल होने पर ही युद्ध का आश्रय लेना पड़ता था । इसी प्रकार जैनेत्तर ग्रंथों में उल्लिखित है कि कौरवों और पाण्डवों में अन्त तक समझौते की चेष्टा और पाण्डवों को पाँच गांव लेकर ही संतुष्ट हो जाने की तत्परता से सिद्ध होता है कि प्राचीन भारत में बिना विचार के प्रायः युद्ध नहीं छेड़े जाते थे । प्राचीन भारतीय आचार्य जानते थे कि युद्ध का एकदम त्याग कर देना सम्भव नहीं । अतः युद्ध की सम्भावना यथासम्भव कम करने के लिए उन्होंने विविध राज्यों के "मंडल" बनाकर उसमें शक्ति संतुलन कायम रखने की व्यवस्था की थी। स्मृति और नीति ग्रंथकारों की प्रख्यात " मंडल " नीति शक्ति संतुलन के सिद्धान्त पर ही आधारित थी । इन आचार्यों ने विभिन्न राज्यों में प्रायः जो सम्बन्ध रह सकते हैं उन्हें समझाते हुए दुर्बल राज्यों को अपने से अधिक शक्तिशाली पड़ौसी राज्यों से सावधान रहने की सलाह दी है और इनकी विस्तार- नीति से अपनी रक्षा के हेतु अन्य समान या न्यूनाधिक बल वाले राज्यों से मैत्री स्थापित करने का शत्रु साहस ही न कर सकें । --
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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