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( १७०) थी। मार्ग धूली तथा कण्टकों से रहित अर्थात् साफ, चलने में सुखदायी होते थे । प्याऊ बड़े-बड़े वृक्षों की छाया से युक्त तथा रसों से पूर्ण होती थी।' इसके अलावा नगरी धूली के ढेर और कोट की दीवारों से दुर्लध्य नगर दरवाजों, अट्टालिकाओं की पंक्तियों तथा बन्दरों के शिर जैसे आकार वाले बुों से बहुत ही अधिक सुशोभित होते थे। उक्त उल्लेख से प्राप्त होता है कि वास्तव में नगरों की रचना बहुत ही सुन्दर ढंग से की जाती थी।
महापुराण में पुरनिर्माण के सात अवयव वर्णित हैं।'
(१) वप्र, (२) प्राकार, (३) परिरवा, (४) अटारी, (५) द्वार, (६) गली और (७) मार्ग ।
नगर के चारों ओर विशाल कोट का निर्माण किया जाता था। कोट के चारों ओर गहरी परिरवा होती थी, जो कि बहुत गहरी होती थी। नगर ऊँचे-ऊँचे गोपुरों से युक्त होते थे। बड़ी-बड़ी वापिकाओं से नगर को अलंकृत किया जाता था। नगर में सभी प्रकार के लोग रहते थे। महापुरण में उल्लिखित है कि प्रत्येक नगर के मध्य में चतुष्क (चौराहा) बनाया जाता था। यह चौराहे नगर के सभी स्थानों से मिलते थे। इसके अलावा महापुराण में यह भी वर्णित है कि नगर में प्रतौली' और रथ्या होते थे। प्रतौली रथ्या से चौड़ी गली होती थी। प्रतौली नगर के मुख्य बाजारों एवं मुहल्लों की ओर जाती थी, तथा रथ्या सीमित मुहल्ले तक ही जाती थी। १. देशग्राम समाकोणे मटम्बाकार संकुलम् ।
महातरुतच्छायाः प्रथाः सर्वसमान्विता ॥ पद्म पु० ३/३१५-३२५. २. विभाति गोपुरोपेतद्वाराट्टालकपडूक्तिभिः ।
वनाकारदुलध्यं मुरजः कपिशीर्षकैः । महा पु० ६३/३६५. ३. महा० पु० १६/५४-७३. ४. पद्म पु० २/४६. ५. पद्म पु० २/३६-४५. ६. महा० पु० २६/३. ७. वही ४३/२०४. ८. वही २६/३.