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सप्तम अध्याय
नगरादि व्यवस्था
(क) नगर-विन्यास :
जैन मान्यतानुसार राज्य की बाह्य आक्रमणों से रक्षा करने के लिए नगर निर्माण बहुत सावधानीपूर्वक किया जाता था। इसके अलावा सुन्दरता की दृष्टि से भी नगर की रचना चातुर्यता से की जाती थी। जैन पुराणों के अनुसार नगर पूर्व और पश्चिम में नव योजन चौड़े और दक्षिण से उत्तर में बारह योजन लम्बे होते थे। नगर का मुख पूर्व दिशा में होता था। नगरियों में सौ (१००) चौक (चतुष्क), १२,००० गलियां होती थीं। इसके अलावा नगर में छोटे-बड़े १,००० दरवाजे, ५०० किवाड़ वाले दरवाजे, एवं २०० सुन्दर दरवाजे होते थे। पद्मम पुराण में उल्लेख मिलता है कि उस समय नगर चूने से पुते हुये सफेद महलों की पंक्ति के समान जान पड़ते थे। ___ जैन पुराणों में नगरों की समृद्धि का वर्णन भी उपलब्ध है। पद्म पुराण के अनुसार भारत में राज्य देवलोक के समान उत्कृष्ट सम्पदाओं से युक्त थे। विजयाद्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी की नगरियां एक से एक बढ़कर नाना प्रकार के देशों एवं ग्रामों से व्याप्त, मटम्बों से संकीर्ण, तथा खेट और कर्वट के विस्तार से युक्त होती थी । वहाँ की भूमि भोग भूमि के समान थी। झरने सदा मधु, दूध, घी आदि रसों को बहाते थे । अनाजों की राशियां पर्वतों समान थीं। अनाज की खत्तियों का कभी क्षय नहीं होता था। वाटिकाओं एवं बगीचों की आवृत महक चारों तरफ फैलती
१. सुधारससमासङ्गपारागारपा० क्तिभि; पद्म पु० २/३७. २. पद्म पु० ४/७६.