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________________ ( १७१) १. दुर्ग : प्राचीन भारत में दुर्गों का अत्यधिक महत्त्व था। उस समय सीमा विस्तार की भावना से एक राजा दसरे राजा के राज्य पर आक्रमण करते ही रहते थे। इसलिए राज्यों की सुदृढ़ता एवं राज्यों की सुरक्षा के लिए दुर्ग महत्त्वपूर्ण समझे जाते थे। दुर्ग राज्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग भी स्वीकार किया गया है। आचार्य कौटिल्य ने दुर्ग को राज्य के प्रमुख सप्तांगों में से एक माना है जिसे कोष, मित्र और सेना से अधिक महत्त्वपूर्ण समझा जाता था। जिस देश में जितने अधिक दुर्ग होते थे वह उतदा ही अधिक शक्तिशाली समझा जाता था। जन-धन की सुरक्षा की दृष्टि से तथा युद्ध में सहायक होने के कारण दुर्गों का महत्त्व इस देश में बहुत समय तक रहा। सारांश में हम यह कह सकते हैं कि राजा अपने राज्य में अनेक ऐसे विकट स्थान-दुर्ग, खाई आदि का निर्माण करवाते थे, क्योंकि जब शत्रु देश पर आक्रमण करता था उस समय वह इन विकट स्थानों से दुःखी हो जाता था जिसके कारण आक्रमण सफल नहीं हो सकते थे । शुक्राचार्य ने दुर्ग की परिभाषा करते हुए लिखा है कि जिसको प्राप्त करने में शत्रु को भी भीषण कष्ट सहन करना पड़े और जो संकट काल में अपने स्वामी की रक्षा करता है, उसे दुर्ग कहते हैं। दुर्ग युद्ध समय में रक्षण करते तथा शान्ति समय में शोभाप्रद होते थे। दुर्गों की रचना, भूमि, आर्थिक साधन तथा शत्रु-आक्रमण की दिशा आदि को दृष्टि में रखकर की जाती थी। उस समय प्रत्येक राज्य की राजधानी व प्रत्येक नगर सुरक्षात्मक, दुर्ग एवं परिरवा आदि से घिरा रहता था। दुर्ग के सबसे बड़े अधिकारी को कोट्टपाल कहा जाता था। १. अर्थशास्त्र ६, १. पृ० ४१५.४१७. २. शुक्र :-यस्य दुर्गस्य संप्राप्तेः शत्रयो दुःखमाप्नुयुः । ___स्वामिनं रक्षयत्येव व्यसने दुर्गमेष तत् ॥ नीतिवाक्यामृतम् । २०/१, पृ० १९८. ३. दुगैविधान पृ० १. ४. समराहच्चकहा एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ० ७८. अल्लेकर, प्राचीन भारतीय शासनपद्धति पृ० १०५.
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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