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भगवान महावीर स्वामी के समवसरण में जाकर भगवान से आज्ञा लेकर स्वयं राजा के सामने कहता है कि मैं ही रोहिणेय चोर हूं जिसकी कि आप तलाश में हो । ऐसा कह कर वह राजा के मंत्री अमर कुमारादि व्यक्तियों को अपने स्थान पर ले जाकर सारा सामान राजा को वापिस कर दिया। और स्वयं ने भगवान के पास जाकर श्रवण दीक्षा अंगीकार कर ली।
उपर्युक्त कथानक से विदित होता है कि चोर स्वयं आत्मसमर्पण भी कर देते थे।
जेलखाने (चारण) :
जैन मान्यतानुसार प्राचीन समय में जेलखानों की अत्यन्त शोचनीय दशा थी और उनमें कैदियों को दारुण कष्ट दिये जाते थे। कैदियों का सर्वस्व अपहरण कर उन्हें जेल-खाने में डाल दिया जाता, और क्षुधा, तृषा और शीत उष्ण से व्याकुल हो उन्हें कष्टमय जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उनके मुख की छवि काली पड़ जाती, खांसी, कोढ़ आदि विभिन्न रोगों से वे पीड़ित रहते, नख, केश और रोम उनके बढ़ जाते तथा अपने ही मल-मूत्र में पड़े वे जेल में सड़ते रहते थे। उनके शरीर में कीड़े पड़ जाते, और उनका प्राणान्त होने पर उनके पैर में रस्सी बांध उन्हें खाई में फेंक दिया जाता। और भेड़िए, कुत्ते, गीदड़ और मार्जार वगैरह उनका भक्षण कर जाते थे।
जेलखाने में तांबे, जस्ते, शीशे, चूने और क्षार के तेल से भरी हुई लोहे की कुडियां गर्म करने के लिए आग पर रखी रहती, और बहुत से मटके हाथी, घोड़े, गाय, भैंस, ऊँट, भेड़ और बकरी के मूत्रों से भरे रहते । हाथ, पैर बांधने के लिए यहां अनेक काष्ठमय बंधन, खोड़, बेड़ी, शृखला, मारने-पीटने के लिए बांस, बेंत, वल्कल और चमड़े के कोड़े, कूटने-पीटने के लिए पत्थर की शिलाएँ पाषाण और मुद्गर, बाँधने के लिए रस्से चीरने और काटने के लिये तलवार, आरियां और छुरे, ठोंकने
१. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज पृ० ८६,