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( १५० ) प्रयोग न्यायाधीशार्थ किया है। अशोक के शिला-लेख में नगर-न्यायाधीश को “अधिकरणिक" की संज्ञा दी है।'
मनु का कथन है कि जो राजा अदण्डनीय व्यक्ति को दण्ड देता है और दण्डनीय को दण्ड नहीं देता वह नरक-गामी होता है। आचार्य शुक्र ने राजा के आठ कर्तव्यों में दुष्ट-निग्रह को भी प्रधान कर्त्तव्य माना है।' महाभारत के अनुसार न्याय व्यवस्था का यदि उचित प्रबन्ध न हो तो राजा को स्वर्ग तथा यश की प्राप्ति नहीं हो सकती। याज्ञवल्क्य का कथन है कि न्याय के निष्पक्ष प्रशासन से राजा को वही फल प्राप्त होता है। अतः निष्पक्ष न्याय राजा को यज्ञ एवं स्वर्ग को प्रदान करने वाला तथा प्रजा को सुख एवं शान्ति प्रदान करने वाला होता है। जैन मान्यतानुसार तत्कालीन समय में न्याय का मुख्य सिद्धान्त यह था कि राजा कुशल एवं योग्य मंत्रियों द्वारा जांच किये बिना अपराधी को दण्ड नहीं देता था। . न्याय के महत्त्व पर जैन पुराणों में यथेष्ट रूप से वर्णन किया गया हैं। महापुराण में न्याय को राजाओं का सनातन धर्म माना गया है। महापुराण में वणित है कि राजा का दाहिना हाथ भी दुष्ट हो जाये अर्थात दुष्कर्म करने लगे तो उसे भी काट कर शरीर से पृथक करने के लिए तत्पर रहना चाहिए। इस कथन से राजा की न्यायप्रियता प्रतिपादित होती है। इसी पुराण में यह भी वर्णित है कि राजा को स्नेह, मोह, आसक्ति और भय आदि के कारण नीति-मार्ग का उल्लंघन नहीं करना चाहिए। न्याय पथगामी व्यक्ति को न्याय मार्ग में बाधक स्नेह का परित्याग करना चाहिए। महापुराण में पुत्र से अधिक न्याय की महत्ता का प्रति
१. जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन पृ० २६३. २. मनुस्मृति ८/१२८ ३. शुक्रनीतिसार अ० १, श्लोक १२४, पृ० २५ ४. महाभारत शान्तिपर्व ६९/३२. ५. सोऽयं सनातनः क्षात्रो धर्मो रक्ष्यः प्रजेश्वरैः । महा० पु. १८/२५६. ६. दुष्टो दक्षिणहस्तोऽपि स्वस्य छेद्यो महीभुजा । महा० पु० ६७/१११ ७. महा० पु० १७/११०, व्यवहारभाष्य १, भाग ३ पृ० १३२ ८. न्यायानुत्तिनां युक्तं न हि स्नेहानुवर्तनम् । महा पु० ६७/१००