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________________ ( १५१ ) पादन है।' इसी पुराण में यह भी उल्लिखित है कि राजा को प्रजा-पालन में पूर्णरूपेण न्यायोचित रीति का अनुकरण करना चाहिए क्योंकि इस प्रकार पालित प्रजा कामधेनु के समान मनोरथों को पूर्ण करती है। (२) न्याय के प्रकार : जैन पुराण में न्याय के प्रकार का भी वर्णन किया गया है। महापुराण में न्याय के दो प्रकार बताए गये हैं। (१) दुष्टों का निग्रह और (२) शिष्ट पुरुषों का पालन। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपर्युक्त कार्यों के सिद्धार्थ ही न्याय का उपयोग है। (II) न्यायाधीश :- - राज्य में शान्ति एवं सुव्यवस्था स्थापित करने के लिए न्यायव्यवस्था की आवश्यकता होती है । न्याय-व्यवस्था को चलाने के लिए न्यायाधीश की आवश्यकता होती है। जैन पुराणों के अनुसार जैसा कि पूर्व में बताया गया है कि न्यायाधीश का कार्य स्वयं राजा ही करता था। जैन ग्रन्थों में न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूपयक्ष (पालि में रूपदक्ष) शब्द का प्रयोग हुआ है। रूपयक्ष को माठर के नीतिशास्त्र और कौटिल्य की दण्डनीति में कुशल होना चाहिए। व्यवहार भाष्य में वर्णित है कि न्यायाधीश को निर्णय देते समय निष्पक्ष रहना चाहिए। कौटिल्य का कहना है कि राजा उचित दण्ड देने वाला होना चाहिए। (III) शपथ : महापुराण में शपथ पर भी प्रकाश डाला गया है । गवाह को गवाही (साक्षी) देते समय राजा के समक्ष धर्माधिकारी (न्यायाधीश) द्वारा कथित शपथ ग्रहण करनी पड़ती थी। यह प्रथा आज भी न्यायालयों में प्रचलित है। १. हित्वा जेष्ठसुतं लोकम् अकरोन्न्यामभोरसम् । महा० पु० ४५/६७. २. त्वया न्यायधनेनणं भवितव्य प्रजाधृतो। प्रजा कामदुवा धेनुः मता न्यायेन योजिता । महा पु० ३८/२६६. ३. न्यायश्च द्वितीयो दुष्टनिग्रहः शिष्टपालनम् । महा पु० ३८/२५६ ४. व्यवहारभाज्य १, भाग ३, पृ० १३२. –
SR No.032350
Book TitleBharatiya Rajniti Jain Puran Sahitya Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhu Smitashreeji
PublisherDurgadevi Nahta Charity Trust
Publication Year1991
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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