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षष्ठ अध्याय : .
(क) न्याय-व्यवस्था
(१) न्याय : स्वरूप एवं प्रकार : . जैन पुराणों के अनुशीलन से हमें न्याय व्यवस्था का भी ज्ञान प्राप्त होता है। जैन मान्यतानुसार राजा. स्वतः ही न्याय करता था। जैसा कि पद्म पुराण में वर्णित है कि वह राज्य का सर्वोच्च न्यायाधीश होता था। राजा सूर्यास्त तक न्यायालय का कार्य करता था। इसके पश्चात अन्त:पुर में जाता था।' महापुराण में वर्णित है कि धार्मिक राजा अधार्मिक (नास्तिक) लोगों को दण्ड देता था। पद्म-पुराण में व्यवहार शब्द का प्रयोग मुकदमे के लिए हुआ है। जिस आसन पर बैठकर राजा न्याय सुनाता था उसे “धर्मासन" कहा गया है। राजा के अतिरिक्त अन्य न्यायाधीश भी होते थे, जिन्हें "धर्माधिकारी" की संज्ञा प्रदान की गई थी। जैन पुराणों में न्यायाधीशार्थ “अधिकृत' और 'दण्डधर" शब्दों का उल्लेख मिलता है। जैनेत्तर साहित्य एवं पुरातात्त्विक साधनों से न्यायाधीश के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है। कौटिल्य ने दौरव्यावहारिक. शब्द का
१. पद्म पु० १०६/१५० २. अधर्मस्येषु दण्डस्य प्रणेता धार्मिको नृपः । महा० पु० ४०/२००. ३. पद्म पु० १०६/१५२ ४. वही १०६/१४६ ५. महा० पु० ५/५. ६. वही ५६/१५४ , ७. हरिवंश पु० १६/२५५