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युक्त, पृष्ठ भाग शूकर के समान, उन्नत और मांसल कुक्षि, प्रलम्बमान उदर, लम्बी सूढ़, लम्बे ओंठ, धनुष के पृष्ठ भाग के समान आकृति, सुश्लिष्ट प्रमाणयुक्त, दृढ़ शरीर, सटी हुई प्रमाणयुक्त पुच्छ, पूर्ण और सुन्दर कछुए के समान चरण, शुक्ल वर्ण, निर्मल और स्निग्ध त्वचा तथा स्फोट आदि दोषरहित नखों वाला होता है ।' भद्र, मन्द, मृग और संकीर्ण, थे हाथी के चार भेद होते थे । इनमें भद्रं हाथी सर्वोत्तम माना जाता था । वह मधु-गुटिका की भाँति पिंगल नेत्र वाला, सुन्दर और दीर्घ पूँछ वाला, अग्रभाग में उन्नत तथा सर्वागपरिपूर्ण होता था, सरोवर में बह क्रीड़ा करता और दांतों से प्रहार करता था । मंद हाथी शिथिल, स्थूल, विषम त्वचा से युक्त, स्थूल शिर, पूँछ, नख और दन्त वाला तथा हरित, और पिंगल नेत्र वाला होता था । धैर्य और वेग में मंद होने के कारण उसे मंद हस्ति कहते थे । बसन्त ऋतु में ऐसा हाथी जलक्रीड़ा करता तथा सूँड से प्रहार करता था । मृग हाथी कृश होता था । उसकी ग्रीवा, त्वचा, दांत, और नख कृश होते थे तथा वह भीरु और उद्विग्न होता था । हेमन्त ऋतु में यह जलक्रीड़ा करता था तथा अधरों से प्रहार करता था । संकीर्ण हाथी सभी में निकृष्ट माना जाता था । वह रुप और स्वभाव से निकृष्ट होता था । यह हाथी अपने समस्त अंगों से प्रहार करता था । ' शशि, शंख और कुन्दपुष्प के समान धवल हाथी का उल्लेख भी जैन साहित्य में किया गया है । मंडस्थल से इस प्रकार के हाथी के मद प्रवाहित होता रहता था और बड़े-बड़े वृक्षों को यह उखाड़कर फेंक देता था ।
हाथियों की आयु लगभग साठ वर्ष की बतायी गई है । राजा अपने हाथियों के नाम भी रखते थे । राजा श्रेणिक के हाथी का नाम सेचनक था । सेचनक हाथी ऋषियों के आश्रम में पला हुआ था । तथा ऋषिकुमारों के साथ अपनी सूंड में पानी भरकर, पुष्पाराम का सिंचन किया करता था। बड़े होने पर इसने यूथाधिपति को मार दिया था और आश्रम को नष्ट कर दिया था । यह देख कर आश्रम के तपस्वियों ने इसे राजा श्रेणिक को सौंप दिया था । विजयगंधहस्ति कृष्ण का प्रसिद्ध हाथी था ।
१. ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र अ० १.
२. ज्ञातृधर्मकथांग सूत्र अर्थशास्त्र २. ३१० २२१ रामायण १/६/२५.
३. उत्तराध्ययन टीका ४
४. आवश्यक चूर्णी २, पृ० १७० आदि