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कटिभाग चामर-दण्ड से अलंकृत रहता था। धोड़ों की जीन थिल्ली कही जाती थी। .. घोड़ों को शिक्षा दी जाती थी। बहलि (वाह्मीक) के घोड़ों को शिक्षा देने का उल्लेख मिलता है। शिक्षा देने के स्थान को वाहियालि कहा जाता था। अश्वदमग, अश्वमेढ और अश्वारोह शिक्षा देने का काम करते थे। सोलग घोड़ों की देखभाल किया करते थे। कालिय द्वीप के घोड़े प्रसिद्ध समझे जाते थे। व्यापारी लोग अपने दल-बल सहित घोड़े पकड़ने के लिये यहां आया करते थे। ये लोग वीणा आदि बजाकर, अनेक काष्ट और गथी हुई आकर्षक वस्तुएँ दिखाकर, कोष्ट, तमालपत्र, चुवा, तगर, चंदन, कुकुम, आदि सुघाकर, खाण्ड, गुड़, शर्करा, मिश्री आदि खिलाकर, कंबल, प्रावरण, जीन, पुस्त आदि छआकर उन्हें आकृष्ट करते। बाद में अश्वमर्दक लगाम (अहिलाण), जीन (पडियाण) आदि द्वारा उनके मुंह, कान, नाक, बाल, खुर और टाँग बाँधकर, कोड़ों से उन्हें वश में करते और लोहे की गर्म सलाई से उन्हें दागते (अंकणा) थे।
घोड़ों पर चढ़कर लोग अश्ववाहिनिका के लिये जाते थे। लंघन (कदना), वल्गन (गोलाकार घूमना), उत्प्लवन, धावन, धोरण (दूलकी, सरपट आदि चाल से चलना), त्रिपदी (जमीन पर तीन पैर रखना), जविनी (वेगवती) और शिक्षिता गतियों से घोड़े चलते । सर्व लक्षणों से सम्पन्न घोड़ों का उल्लेख भी मिलता है जिन पर कि सामंत राजाओं की
१. विपाक सूत्र २, औपपातिक सूत्र ३१, पृ० १३२. २. कहीं पर दो घोड़ों की गाड़ी को “थिल्लो" कहा गया है। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष.
२. पृ० १२३. ३. आवश्यक टीका हरिभद्र, बम्बई ; आगमोदय समिति १६१६. पृ. २६१, आ०
चू० पृ० ३४३-४४. ४. नि० चूर्णी ६, २३-२४, अर्थशास्त्र २/३० में इसकी चर्चा है। ५. बृहत्कल्पभाष्य १/२०६६. ६. ज्ञाताधर्मकथांग १७ पृ० ५४५. ७. उत्तराध्ययनटीका अ० ३. ८. औपपातिक सूत्र ३१, पृ० १३२, उत्तराध्ययन टीका ४०८, तथा अर्थशास्त्र २/
३० पृ० २१७.