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अर्थशास्त्र में कोष के अधिकारी को कोषाध्यक्ष कहा गया है।' कोष की उत्पत्ति राजा के साथ ही हुई है। जैसा कि महाभारत के वर्णन से प्रकट होता है कि प्रजा ने मनु के कोष के लिए पशु और हिरण्य का पाँचवाँ भाग तथा धान्य का दसवाँ भाग देना स्वीकार किया था। कोष को भाण्डार आदि अन्य नामों से भी जैन पुराणों में उल्लिखित किया गया है। आदि पुराण में कोष के लिए श्रीगृह शब्द का प्रयोग हुआ है । निशीथ सूत्र में उल्लिखित है कि कोष में मणि, मुक्ता और रत्नों का संचय किया जाता था। महाभारत', कामंदक नीतिसार और नीतिवाक्यामृत' में कहा गया है कि कोष राज्य की जड़ होती है। इसलिए इसकी देख-रेख यत्नपूर्वक करनी चाहिए । अभिलेखों में भी भाण्डागारिक का उल्लेख किया गया है। नासिक अभिलेख में इसका भाडागारिकया के रूप में उल्लेख मिलता है। कन्नौज नृपति के चन्द्रावती अभिलेख (संवत् ११४८) में भाण्डागारिक का उल्लेख है। आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि कोष ही राजाओं का प्राण है।'' संचित कोष संकट काल में राष्ट्र की रक्षा करता है।
(१) राजकर व्यवस्थाः कानूनी टैक्स
जैन मान्यतानुसार प्राचीन समय में लगान और कर के द्वारा राज्य का खर्च चलता था तथा इसी से राजकोष को भरा जाता था।
१. कौटिल्व अर्यशास्त्र ११/२६, पृ० ११६. २. महा० शान्ति० ६७/२३-२४ 1. आदि पु० ३७८५ ४. निशीष सूत्र ६/७ . ५. महाभारत शान्तिपर्व, १३०/३५ ६. कामंदक ३१/३३ ७. नीतिवाक्यामृत, २१/५. ८. समराइच्चकहा : एक सांस्कृतिक अध्ययन पृ० ६३ . ६. वही १०. नीतिवाक्यामृतम् २२/५.