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... (२२) इसका अभिप्राय यह नहीं है कि मन्त्रिपरिषद का राजा के समक्ष कोई अस्तित्त्व ही नहीं था। राजा सैद्धान्तिक रूप से तो यह अधिकार रखता था कि मन्त्रिपरिषद के परामर्श को वह माने या न माने, परन्तु मन्त्रिपरिषद में विभिन्न विभागों के विशेष मंत्रियों के होने के कारण वह उनके निर्णय को महत्त्व देता था और साधारणतः उसके अनुसार ही कार्य करता था। आचार्य सोमदेव ने लिखा है कि “राजाओं को अपने समस्त कार्यों का प्रारम्भ सुयोग्य मंत्रियों की मन्त्रणा से ही करना चाहिए।'
मंत्रियों के कार्यों का उल्लेख करते हुये आचार्य सोमदेव लिखते हैं कि बिना प्रारम्भ किये कार्यों को प्रारम्भ करना, प्रारम्भ किये हए कार्यों को पूर्ण करना और जो पूर्ण हो चुके हैं उनमें कुछ विशेषता उत्पन्न करना तथा अपने अधिकार का उचित स्थान में प्रभाव दिखाना ये मंत्रियों के प्रमुख कार्य हैं।
मंत्री का यह कर्तव्य है कि राजा को सदैव सत्परामर्श ही दे और उसे कभी अकार्य का उपदेश न दे । जैन मान्यतानुसार मंत्री को राजा के लिए दुःख देना उत्तम है, किन्तु वह भविष्य में हितकारक होना चाहिए। जो मंत्री तत्काल अप्रिय लगने वाले कठोर किन्तु हितकारक वचन बोलकर राजा को दुःखी करता है तो वह उत्तम है, परन्तु अकर्तव्य का उपदेश देकर राजा का विनाश करना अच्छा नहीं है। जैन मान्यतानुसार मंत्री राजा को शिक्षा देता था तथा खास परिस्थितियों में अयोग्य राजा को हटाकर उसके स्थान पर दूसरे राजा को गद्दी पर बैठाता था। (ख) कोष :
शासन सत्ता की सुव्यवस्था एवं स्थायित्त्व के लिए कोष को राज्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग बताया गया है। कोष विपत्ति के समय में राजा और प्रजा दोनों की रक्षा करता है। कोष का अधिकारी भाण्डागारिक होता था। वह भण्डागार की व्यवस्था का बराबर ध्यान रखता था। उसकी राय से ही भाण्डागार से धन आदि खर्च किया जाता था लेकिन भाण्डागार का सर्वोच्च अधिकारी तो राजा ही होता था। कौटिल्य
१. नीतिवाक्यामृत में राजनीति पृ० १०२. २. वही