________________
(१०३) करनी चाहिए। भगवान ऋषभदेव ने सामाजिक जीवन से नितान्त अनभिज्ञ उस समय के मानव का सुन्दर-शान्त और सुखमय जीवन बनाने के लिए, सहअस्तित्व का पाठ पढ़ाते हुए, सब प्रकार से समीचीन समाज की आधारशिला रखी। ऋषभदेव ने सर्वप्रथम वर्ण-व्यवस्था की स्थापना की। इससे पूर्व किसी भी प्रकार की वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। जो लोग शारीरिक दृष्टि से सुदृढ़ और शक्ति सम्पन्न थे, उन्हें प्रजा की रक्षा के लिए कार्य में नियुक्त कर पहचान के लिए "क्षत्रिय" शब्द की संज्ञा दी।
जो लोग कृषि, पशुपालन व वस्तुओं के क्रय-विक्रय, वितरण, अर्थात् वाणिज्य में निपुण सिद्ध हुए, उन लोगों के वर्ग को "वैश्य" वर्ण की संज्ञा दी।
जिन कार्यों को करने में वैश्य लोग अरूचि एवं अनिच्छा अभिव्यक्त करते, उन कार्यों को करने में जो लोग तत्पर हुए व जनसमुदाय की सेवा में विशेष अभिरुचि प्रगट की उस वर्ग को “शूद्र" की संज्ञा दी।
इस प्रकार ऋषभदेव स्वामी ने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीन वर्षों की स्थापना की थी।
- इसके अतिरिक्त भगवान ऋषभदेव ने मानव को सर्वप्रथम सहअस्तित्व, सहयोग, सहृदयता, सहिष्णुता, सुरक्षा, सौहार्द्र एवं समानता का पाठ पढ़ाकर मानव के हृदय में मानव के प्रति भ्रातृभाव को जन्म दिया । उन्होंने गुण कर्म के अनुसार वर्ण-विभाग किये । जन्म को प्रधानता नहीं दी और लोगों को समझाया कि सब अपना-अपना काम करते हुये एक-दूसरे का सम्मान सत्कार करते रहो, किसी को तिरस्कार की भावना से मत देखो।
उपर्युक्त तीन वर्षों के अलावा चौथे ब्राह्मण वर्ण की स्थापना महाराजा भरत चक्रवर्ती द्वारा हुई। जो लोग आरम्भ परिग्रह की प्रवृत्तियों से अलग रहकर लोगों को "माहन", "माहन" (हिंसा मत
१. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति वक्ष २ २. महा पु० १६/२४३-२४६