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3rd Proof Dt. 19-7-2018 - 55
• महासैनिक .
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बापू अपनी स्वच्छ-श्वेत खदर की गद्दी की पाट पर अपनी लाक्षणिक मुद्रा में एक वस्त्रधारी बनकर बैठे बैठे कुछ लिख रहे थे।
उनके उस कमरे में पहुंचकर डाक्टर साहब ओर हम दोनों बच्चे प्रथम तो उनके ईशारे से चुपचाप खड़े रह गये । तुरन्त ही बापूने लिखना रोककर हमारी और देखा और मुस्कुरा कर बोले :
"आओ दिनशा....."
दिनशाजी ने और हम दोनों ने बापू को प्रणाम किया और आनन्दविभोर हो उठे । एकदम ही दिनशाजी ने बापू से हमारा परिचय करवाया :
"बापूजी! आपनी (णी) गुजराती स्कूलमाथी ज आ बे बच्चा स्वयंसेवक तरीके आपनी सेवा माटे आव्यां छे-बंने स्काउट वोलन्टियर छे....." __ "भले आव्यां" कहकर बापू ने अपना स्मित दर्शाया। कहा और पूछा : __ "स्काउट थई सेवा आपो छो ए सारी वात छ । तमारो पोशाक पण सरस छ । परंतु एखादीनो नथी, खरं ने ?"
"ना बापुजी, खादीनो नथी"
"स्काउट संस्थाए आपेलो छ।" मुझे छोटी वय में पिताजी द्वारा सिलवा दिये गये वे हरे रंग के खद्दर के कोट-चड्डी याद आ गये।
"तो हवे खादीनो सीवडावशो ?" "जरुर बापुजी, जरुर सीवडावीशं" "बहु सुंदर । पण खादीनो शा माटे ए पण पहेलां आ डोक्टर साहेब पासेथी समजी लेजो..." "भले" फिर बापू का चरण-स्पर्श कर हम विदा होने लगे।
फिर बापूने डा. दिनशा को इस बात का संकेत कर हमें सायं-प्रार्थना समय हरिजन फंड एकत्र करने में जोड़ने का भी निर्देश दिया। फिर दिनशाजी हमें एक अन्य व्यवस्थापक व्यक्ति के पास ले गये । सब कुछ उन्हें बताया। उन्होंने हमें दिवस और रात के बारी बारी के कर्तव्य-कार्य बतलाये। हम उसीमें जुट गये। शाम को सायं-प्रार्थना के समय सभाजनों से हरिजन फंड में धन जुटाने के लिये पात्र सौंपे गये। लोगों से इस पुण्यकार्य हेतु पैसे एकत्र करने में हमें बड़ा आनन्द आया - दिनभर के अन्य सेवाकार्यों के उपरान्त ।
रात की सेवा-पारी के लिए उस दिन मेरे दूसरे मित्र को रुकना था। मैं सानन्द घर लौटा। सारे परिवारजनों को 'आनन्दीकुटी' पुरंदरे कोलोनी के हमारे निवास पर बापू के प्रथम परिचय का आनन्द ऐसा बाँटने लगा, मानों हमने जीवन का कोई बड़ा लाभ हॉसिल कर लिया हो । छोटा भाई कीर्ति तो बड़ा इतराता रहा ।
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