________________
3rd Proof Dt. 19-7-2018 - 54
• महासैनिक.
॥ ॐ ऐं नमः ॥ पूना में पंद्रह दिन बापू के साथ
(प्रा. प्रतापकुमार टोलिया) प्रथम दर्शन : दुर्लभ अवसर
प्रसन्न-मस्त विद्याभ्यास की कुमारावस्था के वे दिन थे... पंद्रह वर्ष की देहायु, पूना की रविवार पेठ स्थित आर.सी.एम. गुजराती हाईस्कूल, चौथी कक्षा की उस विद्या-श्रेणी में अभ्यास में चित्रकला उपरान्त स्काउट-प्रवृत्ति में भी प्रविष्ट होकर विशेष योग्यताएँ प्रदान करने का अवसर मिल रहा था। एक ओर से ललितकला में चित्र, दूसरी ओर से निवास निकट गोपाल गायन समाज में संगीत और तीसरी ओर से विद्यालय के 'भरत पथक' स्काउट के द्वारा शरीर-सौष्ठव-निर्माण और सेवाकार्य में योगदान । जैसी विद्यालयीन पढ़ाई में रुचि सह महारथ प्राप्त होती जा रही थी, वैसी ही इन विशिष्ट इतर प्रवृत्तियों में भी । तभी से एक समग्र, सर्वांगीण, संतुलित विकास की मानों सहज ही प्राप्ति होने लगी थी। माता-पिता एवं अग्रज- सभी इस में प्रोत्साहित कर रहे थे यह मेरा कितना सौभाग्य था ! उनका उपकार सदा महसूस/प्राप्त करता जाता था । पर्वती दादावाड़ी नित्य जिनदर्शनोपरान्त ।
इतने में एक सु-अवसर पूना के सद्भाग्य में आया। १९४५ के अंतिम माह के दिन थे। १९४६ जनवरी आरम्भ तक।
बापू गांधीजी का, पूना स्टेशन निकटस्थ, डा. दिनशा महेता के निसर्गोपचार केन्द्र Nature Care पर अच्छे समय के लिए रुकना हुआ। उनके स्वास्थ्य के उपरान्त राष्ट्रीय प्रवृत्तियों के निमित्त थे।
बापू की सेवा में कुछ सुयोग्य कुमार स्वयंसेवकों की आवश्यकता थी । व्यवस्थापकों से डा. दिनशा मेहता द्वारा हमारे जाने-माने गुजराती विद्यालय पर इस हेतू निमंत्रण आया । विद्यालय के प्राचार्य गांधीवादी खद्दरधारी प्रसन्नवदन श्री. दादावाले साहब एवं भरतपथक स्काउट के मुखिया श्री मोदी ने ठीक से कसौटी-परीक्षा कर इस हेतु हम दो छात्रों को चुना- एक को दिनभर के लिए - दूसरे को रात्रिभर के लिए । मैं और मेरा सहपाठी मित्र प्रताप दत्तानी इस चयन से फूले नहीं समाये । हम दोनों मित्रों का राष्ट्रवादी लगाव, बारबार आगाखान पेलेस पर कस्तुरबा-महादेवभाई की समाधियों पर जाना और मेरे वतन अमरेली में 1942 अगस्त के भारत छोडो आंदोलन में बालपराक्रम ये शायद हमारे चयन के मूल में थे। प्रथम तो दूसरे ही प्रातः दोनों निसर्गोपचार केन्द्र पर अपनी रुकाउट की वेशभूषा में पहुंच गये । डा. दिनशा से हम प्रथम मिले । गुजराती स्कूल से और रुकाउट वेशधारी गुजराती स्वयं सेवक आये जानकर वे बड़े खुश हुए । अपनी पारसी गुजराती में ही बड़े प्रेम से बोले"आवो डिकरा... ! चालो टमने बापूजी पासे ज लई जाउं... ।"
(54)