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3rd Proof Dt. 19-7-2018 - 56
फिर जल्दी सोकर दूसरी सुबह मुँह अंधेरे ही जल्दी उठ गया और झटपट अपनी प्रातः क्रियाएँ निपटाकर, अपना गणवेश पहने अपनी साइकिल पर सवार हो गया, निसर्गोपचार केन्द्र पर बापू की सेवा में पहुँच गया। आज उनके कमरे के दरवाजे पर ही खड़ा रहना था। बापू अपने पेट और कपाल पर मिट्टी की पट्टी लगाये लेटे हुए थे । वहाँ के व्यवस्थापक ने मुझे चुपचाप खड़े रह जाने का संकेत किया। बापू के उठने पर उनको कुछ दूर से प्रणाम कर अपने सौंपे गये कार्य आगंतुकों का स्वागत कर बीठाने या बापू के पास ले जाने का जिम्मा - कर्तव्य में लग गया । बीच बीच में बापू के भिन्न भिन्न सावध-कार्यों को निहारने का एवं अनेक आनेजाने वालों से उनकी बातचीत सुनने का भी अवसर मिलता रहा। किस सेवार्थी को ऐसा दुर्लभ मौका मिलता होगा ? हरिजन फंड धन पायो 'बहु पुण्य' पद-पंक्ति सुनायो
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• महासैनिक
फिर सायं प्रार्थना, हरिजन फंड एकत्रीकरण और अपनी साइकिल उठाये घर लौटना । चला यह क्रम । दो दिन ऐसे सानन्द बीत गए ।
उस दिन सायं प्रार्थना के बाद एक छोटा-सा प्रेरक-प्रसंग बापू के साथ घट गया था । बापू, कुछ लोग, डो. दिनशा एवं व्यवस्थापक भाई के साथ प्रार्थना-स्थान से अपने कमरे की ओर लौट रहे थे और हम दोनों मित्र भी उस दिन अपने दान पात्रों में अत्यधिक छलछल हरिजन फंड एकत्रित कर उसे व्यवस्थापकजी को सौंपने आ रहे थे। आते आते, बीच बीच में विनोद करने वाले बापू के सामने हमनें भी विनोद में हंसते-हंसते उस दिन की प्रार्थना का भजन दोहराया "राम रतन धन पायो, हरिजन फंड धन पायो", बापू के चरणों में ही हमने हमारे दान पात्र धर दिवे और बापू भी हंस पड़े बोले "तुम दोनों बड़े शरारती भी हो और नया भजन भी अच्छा जोड़ कर गा लेते
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हो ! कहीं संगीत बंगीत सीखा हैं क्या ? और भजन भी जनते हो क्या ?"
"हाँ जी, बापूजी ! बहु पुण्य केरा पुंजथी शुभ देह मानवनो मळ्यो"
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मुझ से यह उत्तर सुनकर तो बापू और प्रसन्न होकर बोले "अरे! यह तो रायचंदभाई का लिखा हुआ है। तुमने कहाँ से सीखा, बेटे ?"
"मेरे पिताजी से । माँ भी सुबह चक्की पिसते यह गुनगुनाती रहती है
"बहुत अच्छा..... कभी मुझे पूरा सुनाना प्रार्थना में।"
कहते हुए प्रसन्नमुख बापू अपने कमरे में चले गये और मैं अपने घर की ओर आनन्दोल्लास से साइकिल चलाते चलाते "रामरतन धन" और "बहु पुण्य केरा" दोनों भजन गाता-गुनगुनाता हुआ।
घर आकर जब पूज्य माता-पिता और सारे परिवार को यह सारी घटना सुनायी तो उनके सभी के आनन्द का ठिकाना ना रहा। इस आनन्द से सारी 'आनन्दी कुटी' गुँज उठी और हम सब भजनगान करते करते आनन्द - निद्रा में चले गये ।
तीसरे दिन डा. दिनशा और उनकी धर्मपत्नी गुलबाई दोनों सामने ही मिल गये । बोले : "काले टमे शुं भजन जोडियुं ! बापूने य हसावी डीधा ।"
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