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८. असीम एकलता
अजनबी राह पे एक अजनबी के साथ चल रही हूँ अजनबी मैं। अपनों से दूर इस अजनबीपन से दबी दबी हूँ मैं जानती हूँ तो सिर्फ तनहाई को, जो लम्हा लम्हा बढ़ती जाती है...! इसकी सीमाहीनता में, अपने आप को और भी दूर पाती हूँ मैं ।
मेरी पहचान रही है सिर्फ एकाकीपने से । धीरे धीरे वह बढ़ती जाती है, वह आख़िर निस्सीम हो चलती है और अपनी सत्ता से, अपनी आत्मा से यह निस्सीम एकलता मुझे दूर कर देती है, अपनों से दूर भागने से अपनी आत्मा से ही दूर भागना बन जाता है। उसे तो, अपने आपको तो सभी के बीच रहकर ही पाना है, हाँ, सभी के बीच रहकर अलिप्त-से, सभी के बन जाकर नहीं।
९. स्वप्न साकारता की अभिलाषा एक अजानी-सी चाह अनदेखी पहले घर कर गई मुझ में इसे समझने के प्रयास में भूले अपने आप को दिवास्वप्न बन चुके जीवन को... इसी स्वप्न से यथार्थ में बदलने की कोशिश बहाए लिए जा रही हूँ,
___पात प्रभूल
पारुल-प्रसून
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