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अजनबी पथ पर । उस अंतिम लक्ष्य की परिकल्पना भी ... असंभव होने लगी है। हे दिवास्वप्न के राजकुमार! तुम ही इस परिकल्पना को रूप दो और इस रूप को अरूप से साकार-स्वरूप बना सकुं।
चाह - बिलकुल अनजान, अदृष्ट । जब से वह भीतर बैठ गई है, तब से उसे समझते समझते खो दिया अपने आप को, अपने होश को । जीवन बन गया एक दिवास्वप्न । फिर प्रयास चला उस दिवास्वप्न को वास्तविकता में बदलने का। अज्ञात मार्गों पर यह यात्रा चली। मंझिल न जाने कहाँ दूर खो गई। चाह और दिवास्वप्न के राजकुमार ! काल्पनिक राजकुमार ही शायद दे सके उस खोई हुई मंझिल की हस्ती।
१०. अपने आप से पलायन ? अंधेरा अकेलापन
और मैं .... अभिन्न एक दूसरे से हृदय से उठती हर टीस, हर आह मुझी में कहीं खो जाती है मेरे करीब आनेवाला उसका अहसास तक नहीं पाता मेरे चेहरे की मुसकान खुशी का संकेत बन जाती है (और) वह आगे बढ़ जाता है और मैं उसे वापस लाने के यत्न में विफल (हो जाती हूँ)
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पारुल-प्रसून