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कुवलयमालाकहाँ का सांस्कृतिक अध्ययन
सकता है । ९वीं शताब्दी के आचार्य श्री जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला विवरण के सन्दर्भ के अनुसार बंदिक कवि जैनाचार्य-श्रमण थे तथा उनके ग्रन्थ हरिवंश की भाषा संस्कृत थी।
हरिवर्ष एवं सुलोचनाकथा-डा० उपाध्ये का कथन है कि हरिवर्ष कवि ने सुलोचनाकथा नाम की कोई कृति लिखी होगी, जिसका स्मरण उद्योतन ने किया है । अन्यत्र भी सुलोचनाकथा के सन्दर्भ मिलते हैं । कृति मिलने पर इस पर अधिक प्रकाश पड़ सकेगा।'
किन्तु उपर्युक्त विवरण द्वारा 'हरिवंश' ग्रन्थ का नाम है, यह निश्चित हो चुका है। अतः सुलोचनाकथा का लेखक कोई अन्य रहा होगा, जिसका स्पष्ट नामोल्लेख इस गाथा (३.३०) में नहीं है। यदि इस गाथा में प्रयुक्त 'जेण' सर्वनाम का सम्बन्ध पूर्ववर्ती गाथा से माना जाय तो बन्दिक कवि को इस सुलोचनाकथा का लेखक माना जा सकता है। किन्तु पं० दलसुखभाई मालवणिया 'जेण' सर्वनाम का सम्बन्ध परवर्ती गाथा (३.३१) से मानते हैं। तदनुसार कवि प्रभंजन इस सुलोचनाकथा के कर्ता होना चाहिए। अभी तक इन दोनों सम्भावनाप्रों की पुष्टि के लिए अन्य दूसरे प्रमाण उपलब्ध नहीं है। सुलोचनाकथा नामक इस कृति के मिलने पर ही निश्चयपूर्वक कुछ कहा जा सकेगा।
प्रभंजन एवं यशोधरचरित-उद्द्योतनसूरि ने कहा है कि शत्रु के यश को हरण करनेवाला, 'यशोधरचरित' द्वारा लोक में प्रसिद्ध तथा पाप-मल को नष्ट करनेवाला प्रभंजन नाम का राजर्षि था (३.३१)। अभी तक यशोधरचरित नाम के जितने ग्रन्थ मिले हैं, उनमें प्रभंजन का यह ग्रन्थ सबसे प्राचीन प्रतीत होता है।
रविषेण एवं पद्मचरित--'पद्मचरित' में महाकवि रविषेण ने रामकथा संस्कृत में लिखी है । इनका समय लगभग ७७६ ई० माना जाता है। पद्मचरित अब हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित हो चुका है। रविषेण और उद्योतन एक १. वही, 'कवि बंदिक' नामक लेख का दूसरा भाग।
संणिहिय-जिणवरिंदा धम्मकहा-बंध-दिक्खिय-परिंदा। कहिया जेण सुकहिया सुलोयणा समवसरणं व ॥ The verse itself does not mention the name of the author but it has Pronoun for which, usually, should go with the author inentioned in the earlier verse. In that case हरिवर्ष will have to be taken as the author of सुलोचनाकथा.-Kuv. Int. (Notes), P. 126. सत्तण जो जस-हरो जसहर-चरिएण जणवए पयडो।
कलि-मल-पभंजणो च्चिय पभंजणो आसि राय-रिसी ॥ ५. द्रष्टव्य-डा० जी० सी० जैन-य० सां० अध्ययन, पृ० ५०-५६. ६. 'जसहरचरिउ'-सं० पी०एल० वैद्या, कारंजा, १९३१ प्राक्कथन, पृ० २४-२५.