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ऐतिहासिक-सन्दर्भ
३७ से सुन्दर), सुन्दर वर्ण (रंग) और रत्नों से उज्ज्वल (तथा सुन्दर शब्द-रत्नों से उज्ज्वल) कहा है (३.२६) । बाण की कादम्बरी आज भी अपनी रसात्मकता के लिए पर्याप्त प्रसिद्ध है।
विमल एवं पउमचरियं-उद्द्योतनसूरि को विमल का 'पउमचरियं' अमृतसदश सरस प्रतीत होता था तथा विमल कवि की प्रतिभा को पाना वे कठिन मानते थे (३.२७) । वास्तव में पउमचरियं कृति ही ऐसी है, जिसका गुणगान कई कवियों ने किया है। यह रामकथा से सम्बद्ध सर्व प्रथम प्राकृत चरित काव्य है। संस्कृत साहित्य में जो स्थान बाल्मीकि रामायण का है, प्राकृत में वही स्थान इसका है । इसके रचयिता विमलसूरि जैन आचार्य थे। प्रशस्ति में इनका समय ई० सन् प्रथम शती है, पर ग्रन्थ के अन्त:-परीक्षण से इसका रचनाकाल ३-४ शती प्रतीत होता है।'
देवगुप्त एवं सुपुरिसचरियं-उद्योतनसूरि ने देवगुप्त नाम के महाकवि का दो वार उल्लेख किया है (३.२८, २८२.८)। सम्भवतया देवगुप्त प्रसिद्ध गुप्तवंश के कोई राजर्षि थे। इनके 'सुपुरिसचरियं' का अभी तक पता नहीं चला है।
बंदिक एवं हरिवंश-कुवलयमाला के इस प्रसंग की १२वीं गाथा (३.२६) के अर्थ के सम्बन्ध में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद रहा है, जिसका उल्लेख डा० उपाध्ये ने अपनी भूमिका के नोटस् (पृ० १२६) में किया है। उन्होंने इस गाथा के हरिवरिसं पाठ को शुद्ध मानकर 'हरिवर्ष' को सुलोचनाकथा का लेखक स्वीकार किया है। तथा 'वंदियं' शब्द को 'वन्द्यमपि' मानकर इसे हरिवर्ष का विशेषण मान लिया है।
किन्तु 'वंदियं' एवं 'हरिवरिसं' इन दोनों शब्दों के पाठान्तर तथा अन्य साक्ष्यों के आधार पर पं० अमृतलाल भोजक ने एक नयी बात कही है। वे बंदिक कवि की 'हरिवंश' नामक पौराणिक रचना का यह उल्लेख मानते हैं। इस सम्बन्ध में उन्होंने जो प्रमाण दिये हैं उनसे उनके इस मत को स्वीकारा जा १. द्रष्टव्य--'पउमचरियं' सं० डा० भयाणी, प्रथम भाग।
बुहयण-सहस्स-दइयं हरिवंसूप्पत्ति-कारयं पढमं।
वंदामि वंदियं पि हु हरिवरिसं चेय विमल-पयं। -कुव० ३.२९. ३. डा० जी०सी० चौधरी-'तथाकथित हरिवंशचरियं की विमलसूरि-कर्तृता का
निरसन'-जैनसिद्धान्तभास्कर, भाग २६, किरण २. ४. श्रीभोजक द्वारा स्वीकृत पाठान्तर-वंदामि वंदियं वि हु हरिवंसं चेव
विमलपयं । प्रथम प्रमाण-पाठभेद, द्वितीय प्रमाण-कुव० के संस्कृतरूपान्तरकार द्वारा बन्दिक कवि का उल्लेख तथा तृतीय प्रमाण-'बहत टिप्पनिका' नाम की जैन ग्रन्थों की सूची में-"हरिवंश चरित सं० बंदिककविकृतं पुराणभाषानिबद्ध नेम्यादिवृत्तवाच्यं ६०००" इस तरह का उल्लेख । द्रष्टव्य–'सम्बोधि' (त्रैमासिक)-भाग १, नं० ४, जनवरी ७३, पृ० १-४.