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भारतीय दर्शन
३७७ था।" इस सन्दर्भ में 'उग्गाहीयई' क्रिया से ज्ञात होता है कि सांख्य-दर्शन का व्याख्यान गाथाओं को गाकर किया जा रहा था। सम्भव है, 'सांख्यकारिका' की कारिकायें गाकर समझाई जा रही हों। आठवीं शताब्दी तक सांख्यकारिका निश्चित रूप से प्रसिद्ध हो चुकी थी। उसका चीनी अनुवाद इस समय किया जा चुका था, जो इस ग्रन्थ की प्रसिद्धि का द्योतक है ।२
कुवलयमाला में धार्मिक प्राचार्यों के साथ कपिल का भी उल्लेख हुआ है। ये कपिल निरीश्वर सांख्य मत के आदर्श थे। इनका सांख्यदर्शन के साथ प्राचीन साहित्य में भी उल्लेख मिलता है। सांख्यदर्शन क्रमशः विकसित होने पर अनेक मत के साधुओं द्वारा अपना लिया गया था। उद्द्योतनसूरि ने अन्य प्रसंगों में त्रिदण्डी, योगी, चरक, परिव्राजक साधुओं की विचारधारा का उल्लेख किया है, जिसका सम्बन्ध सांख्य-दर्शन के मूल सिद्धान्तों से है। इनके सम्बन्ध में संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है
त्रिदण्डी-'जीव सर्वगत है, ध्यान-योग से वह प्रकृति से मुक्त होता है तथा मिट्टी एवं जल से शौच क्रिया करने पर शुद्धि होती है, यह त्रिदण्डियों का प्रमुख सिद्धान्त है ।'३ एक आचार्य द्वारा ऐसा कहने पर राजा दृढ़वर्मन् ने इसे यह कहकर अस्वीकार कर दिया कि यदि आत्मा सर्वगत है तो कौन ध्यान करेगा, कौन चिन्तन करेगा ? तथा पृथ्वी एवं जल सजीव हैं। उनको मारने से कैसे शुद्धि होगी ? (२०३.२१)।
त्रिदण्डी आचार्य का सम्बन्ध सांख्य-योग दर्शन की शाखा से प्रतीत होता है। प्राचीन समय में ऐसे परिव्राजकों का उल्लेख मिलता है जो त्रिदण्ड धारण करते थे एवं सांख्य-दर्शन के पंडित होते थे । सम्भवतः त्रिदण्ड धारण करने से ही ये उद्योतन के समय तक त्रिदण्डी कहे जाने लगे थे। शौचमूलक धर्म सांख्यमत में लगभग दूसरी शताब्दी में भी था, जिसके अनुसार कोई भी अपवित्र वस्तु मिट्टी से मांजने एवं शुद्ध जल से धोने से पवित्र हो जाती है तथा जल के अभिषेक से पवित्र होकर प्राणियों को स्वर्ग की प्राप्ति होती है। आठवीं शताब्दी के त्रिदण्डी सांख्य-योग मत के शौचमूलक धर्म का प्रचार कर रहे थे। तापस, मुनि एवं अन्य साधुओं से त्रिदण्डी का स्वरूप भिन्न होता था (१८४.२८)।
योगी-'अात्मा सर्वगत है, जिसे प्रकृति नहीं बाँध सकती तथा योगाभ्यास से मुक्ति पाकर व्यक्ति निरंजन होता है । इस सिद्धान्त को मानने वाले आचार्य १. कत्थइ उप्पति-विणास-परिहारावत्थिय-णिच्चेग सहावायरूव-पयइ-विसेसोवणीय
सुह-दुक्खाणुभवं संख-दरिसणं उग्गाहीयइ ।-१५०.२७. २. हरिदत्त वेदालंकार, 'भारत का सांस्कृतिक इतिहास,' पु० ९६.
सव्व-गओ अह जीवो मुच्चइ पयईए झाण-जोएहिं ।
पुहइ-जल-सोय-सुद्धो एस तिदंडीण धम्मवरो॥-कुव० २०३.२७. ४. ज्ञाताधर्मकथा, ५, ७३
सव्व-गओ इह अप्पा ण कुणइ पयडीए बज्झए णवरं । जोगबभासा मुक्को इय चेय णिरंजणो होइ॥-२०३.३१